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________________ १०८ तमसो मा ज्योतिर्गमय की तरह घुलेमिले हों तो समझना चाहिए, यह स्वाध्याय योग्य सत्साहित्य है। इससे आत्मिक क्षुधानिवृत्ति होगो और आत्मिक प्रगति को प्रेरणा मिलेगी। सर्वांगीण स्वाध्याय के पांच अंग जैन शास्त्रों में स्वाध्याय के पाँच अंग बताये गये हैं, ताकि स्वाध्याय सर्वांगीण हो सके और पूर्वोक्त उद्देश्य की पूर्ति कर सके । वे पाँच अंग ये हैं(१) वाचना, (२' पृच्छा, (३) परिवर्तना या पर्यटना, (४) अनुप्रेक्षा और (५) धर्मकथा । वाचना का अर्थ-स्वयं पठन है। किन्तु जो व्यक्ति पढ़ा-लिखा नहीं है, स्वयं हेय-ज्ञेय-उपादेय तत्त्व का विवेक करने एवं निष्कर्ष निकालने में निपूण नहीं है, उसके लिए वाचना का अर्थ, दूसरों के द्वारा पढ़े जाते हुए सत्साहित्य का श्रवण करना है । पृच्छा-केवल वाचत करने या वाचदा लेने, अथवा साहित्य-श्रवण करने से ही स्वाध्याय का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। कई बार साहित्य या ग्रन्थों में ऐसी बातें आती हैं, जो पूर्वापर-विरोधी जैसी लगती हैं, उस समय किस अपेक्षा से कौन-सी बात कही गई है ? किस शब्द का कहाँ क्या अर्थ होगा ? किस वाक्य के पीछे ग्रन्थकार का क्या आशय या रहस्य है ? इसके लिए अनुभवी तत्त्वदर्शी मनीषियों से उस सम्बन्ध में जिज्ञासू बुद्धि से पूछना आवश्यक होता है । इससे साहित्य में वर्णित उक्त विषय मस्तिष्क में परिपुष्ट हो जाता है। इसे शास्त्रीय भाषा में पृच्छा कहा गया है। भगवती सूत्र में गणधर श्री गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से अनेक विषयों पर प्रश्न पूछकर समाधान प्राप्त किया है । महात्मा गाँधीजी जब क्रिश्चियन साहित्य पढ़कर भारतीय धर्मों के विषय में सन्देहशील हो रहे थे, तो उन्होंने साधक श्रीमद रायचन्द्रजी से २७ प्रश्न पूछे थे, जिनका युक्तिसंगत उत्तर पाकर उनकी श्रद्धा भारतीय धर्मों के प्रति सुदृढ़ हो गई। पर्यटना या परिवर्तना-स्वाध्याय के द्वारा पढ़ी या सुनी हुई बातों को बार-बार दुहराना-आवृत्ति करना, उन बातों को पुनः पुनः स्मरण करना पर्यटना या परिवर्तना है । ऐसा करने से आत्मिक चिन्तन एवं कर्तव्यविषयक मनःस्थिति सुदृढ़ होती है। इसे प्रतिदिन नियमित स्वाध्याय भी कह सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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