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आत्म निर्माण का सर्वतोभद्र उपाय : स्वाध्याय १०७ साधक सर्वप्रथम अपनी शक्ति (आत्मबल), उत्साह, श्रद्धा और आरोग्य को देखे-परखे, तत्पश्चात् क्षेत्र और काल को विशेष रूप से जान कर अपनी आत्मा को उस लक्ष्य में नियुक्त कर दे ।।
तात्पर्य यह है पुस्तकों या ग्रन्थों का बाह्य स्वाध्याय करने के पश्चात् साधक को अन्तःस्वाध्याय करना चाहिए कि मेरी आत्मा इन पुस्तकों, ग्रन्थों या शास्त्रों में सूचित आत्मोत्कर्ष के उपायों में से किसे कितनी मात्रा में करने को तैयार है ? इसे पूर्ण करने में आने वाली कठिनाइयाँ तथा विघ्नबाधाएँ क्या-क्या हैं या आ सकती हैं ? उनके निवारण के क्या उपाय हैं ? कब, किस क्रम से, कौन-सा और किस तरह कदम उठाया जाए, जिससे लक्ष्य प्राप्ति तक की मंजिल पूरी की जा सके ? केवल कठिनाइयों और हानियों की बात सोचते रहने से मन हतोत्साह, निराश एवं छोटा हो जाता है, अवचेतन मन उसे टालने या अस्वीकार करने की भूमिका बना लेता है । अतः महापुरुषों द्वारा आदर्श एवं लक्ष्य को दृढ़तापूर्वक अन्त तक अपनाने पर उन्हें प्राप्त हुए सत्परिणामों पर विचार करना चाहिए, ताकि उस दिशा में गति-प्रगति करने का उत्साह, उत्कण्ठा एवं मनःस्थिति प्रबल हो सके। यथार्थ स्वाध्याय सत्साहित्य के माध्यम से ही
स्वाध्याय के नाम पर आजकल अपनी साम्प्रदायिक या पारम्परिक लोकमूढ़ता भरी कथाओं, पुराणों, या कट्टरपंथी बनाने वाले ग्रन्थों का पारायण बहुधा देखा जाता है। ऐसे विवेकवान् कम हैं, जो यह समझकर स्वाध्याय करते हैं कि आज की आन्तरिक विकृतियों, कषायों, विषय-वासनाओं और समस्याओं का निराकरण करने के लिए युगानुरूप शक्य उपाय क्या हो सकते हैं ? बहुत-से कथा-पुराण आज से हजारों वर्ष पूर्व जो परिस्थितियाँ थीं, उनके अनुरूप बने हैं। अब न तो वे परिस्थितियाँ हैं और न उनासमाधानों या उपायों से काम चल सकता है । ऐसी स्थिति में स्वाध्याय के लिए विवेकबुद्धि और स्थितप्रज्ञता से ऐसे साहित्य को स्वयं चुनना चाहिए, जो समुचित सामयिक समाधान प्रस्तुत कर सके । घिसी-पिटी लकीर पीटने वाली, साम्प्रदायिक कट्टरता के पोषक, हिंसोत्तेजक, युगबाह्य, विकासघातक साहित्य को बार-बार घोटते-पीसते रहने से स्वाध्याय का प्रयोजन जरा भी सिद्ध नहीं होगा, केवल समय की बर्बादी होगी । अन्तरात्मा की उच्चस्तरीय भाव-संवेदना, उत्कृष्ट विचारणा, आदर्शानुरूप सत्क्रिया, सर्वांगीण स्पष्ट सम्यग्दृष्टि देने वाले तीनों रत्नत्रयतत्त्व जिस साहित्य में अन्न, जल और वायु
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