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१०६ तमसो मा ज्योतिर्गमय
हो सकता है ? इन सद्विचारों को व्यवहार में उतारने में क्या कठिनाई आ सकती है और उसका निराकरण किस सीमा तक किस तरह हो सकता है ? पुस्तकोक्त प्रगति पथ पर चलना आज की स्थिति में कितना और किस प्रकार सुलभ हो सकता है ?
स्वाध्याय करने के पश्चात् इस प्रकार के आत्ममंथन को शास्त्रीय भाषा में अनुप्रेक्षा कहते हैं ।
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एक वकील के यहाँ क्लर्की करने वाला युवक 'बालक' निराशा और घुटन की जिन्दगी से ऊब कर अपने मित्र के पास गया । किन्तु मित्र के अनुदार व्यवहार से निराश होकर उसने मन में निश्चय किया - अब पुस्तकें ही मेरी मित्र हैं, वे ही मेरी माता-पिता हैं । उस दिन से वह पुस्तकों की शरण में आ गया । दिन-दिन भर पढ़ने में गुजारता और पढ़े हुए पर निरन्तर विचार करना उसके जीवन का अंग बन गया । उसके मस्तिष्क में सद्विचारों का समुद्र लहराने लगा । फिर उसने समुद्रमंथन किया । पहले वकील बनने की इच्छा थी, किन्तु संचित ज्ञान से आत्ममंथन करने पर बाल्जक प्रसिद्ध लेखक बन गया, केवल पढ़े हुए विचारों को परिमार्जित रूप देने से । स्वाध्याय द्वारा विविध ज्ञान-संचय से सम्भावनाओ के अनुरूप चयन करके उसने विश्व को एक नई समन्वयपूर्ण विचारधारा दी ।
विचार चयन के पश्चात् तदनुरूप जीवन विकास की प्रक्रिया की योजना बनानी चाहिए, यह कार्य अनायास ही नहीं बन जाएगा । यह जादू की छड़ी नहीं है, जिसे घुमाने भर से आत्मिक विकास की योजना बन जाएगी । अनभ्यस्त को अभ्यस्त में उतारना अवश्यमेव वीरता का कार्य है । स्थिति-स्थापकता को बदल कर नये सिरे से नये आधार खड़े करने में सुदृढ़ आत्मबल एवं संकल्प की आवश्यकता है । स्वाध्याय के दौरान स्वाध्याय के एक अंग अनुप्रेक्षा करने से अभीष्ट लक्ष्य प्राप्ति की सुव्यव स्थित रूपरेखा एवं योजना बना कर चलने से अभिलक्षित मनोरथ सिद्ध होता है । तात्पर्य यह है कि आन्तरिक स्वाध्याय करते समय साधक को शास्त्रोक्त निम्नलिखित मुद्दों पर अपने अन्तरात्मा को तौलना चाहिए" बलं थामं च पेहाए, सद्धामा रुग्गमप्पणो । खेत्तं कालं च विन्नाय, तहडप्पाणं निरंजर ।। "
१ दशनैकालिक सूत्र अ. ८ गा. ३५
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