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________________ १०४ तमसो मा ज्योतिर्गमय स्वाध्याय से लाभ : सातत्य होने पर हो परन्तु यह गति-प्रगति तभी हो सकेगी, जबकि व्यक्ति नियमित स्वाध्याय करेगा। जैसे व्यक्ति शरीर, बर्तन, वस्त्र, मकान आदि की सफाई नित्य नियमित करता है, क्योंकि उन पर नित्य हो मैल जमता है, इसी प्रकार मन पर भी संसार के बुरे वातावरण का मैल और कुप्रभाव निरन्तर जमना स्वाभाविक है । उसकी सफाई के लिए स्वाध्याय की नित्य नियमित बुहारी लगाने की आवश्यकता रहती है। इसीलिए शास्त्रकारों ने भोजन, शयन आदि की भाँति स्वाध्याय को भी नित्य कर्म, आवश्यक धर्म तथा अष्टांग योग का एक अंग माना है। जिज्ञासु एवं मुमुक्षु के लिए वहाँ कहा गया है ___ अहरहः स्वाध्याय अध्येतव्यः' दिनानुदिन स्वाध्याय में रत रहो । उपनिषद् में कहा गया है-'स्वाध्यायान्मा प्रमदः' स्वाध्याय में प्रमाद मत करो। स्वाध्याय : अक्षय पुण्य का कारण शास्त्र में 'मणपुण्णे वयणपुण्णे' मन के द्वारा शुभ भावना (विचार) करने से तथा वचन के द्वारा शुभ वचन बोलने से पूण्य होता है, ऐसा कहा गया है । इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, क्योंकि शुभ भावों की प्रेरणा देने का प्रमुख आधार स्वाध्याय ही है जिससे मनुष्य के विचार और कार्य मोक्ष मार्ग की दिशा में विकसित होते हैं । इसीलिए 'शतपथ ब्राह्मण' में कहा गया है "यावन्तो वा इमा पृथिवी वित्तेन पूर्णा ददल्लोकं जयति, त्रिस्तावन्तं जयति भू यां संवाक्षम्य, य एव विद्वान अहरहः स्वाध्यायमधीते।" अर्थात्-"जितना पुण्य धन-धान्य से परिपूर्ण समस्त पृथ्वी का दान देने से मिलता है, उसका तीन गुना अधिक पुण्य दिनोंदिन स्वाध्याय करने से प्राप्त होता है।" स्वाध्याय के द्वारा यही विकास क्रम अक्षय पुण्य का कारण बनता है स्वाध्याय : उच्च मार्ग पर चढ़ाने वाला जिस प्रकार पानी को गिराते ही वह तेजी से नीचे बहने लगता है उसी प्रकार साधारण मनुष्य का स्वभाव भी बुरे वातावरण के मिलते हैं नीच कर्मों की ओर ढलने लगता है, उसे न रोका जाय हतोव पाशविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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