________________
आत्मनिर्माण का सर्वतोभद्र उपाय : स्वाध्याय १०३ चालित जीवन जीता है, वह मानव जीवन की गरिमा का अर्थ नहीं समझ पाता । अतः स्वाध्याय सम्यग्ज्ञान का स्रोत है। स्वाध्याय से सम्यक् बोधि
ऐसे सम्यग्ज्ञान की जन्मदात्री, मनुष्य की विवेक बुद्धि अथवा सम्यग् बोधि को ही माना गया है। ऐसी सम्यग् बोधि-सम्यग्दृष्टि अथवा विवेक बुद्धि के बल पर मनुष्य संसार में एक से एक उच्च सत्कार्य कर सकता है, अपनी आत्मा को आस्रवों-पापकर्मों या कर्मबन्ध से बचाकर मोक्ष जैसा परमपद प्राप्त कर सकता है । निकृष्ट एवं अधोजीवन से उठकर उच्चस्तरीय आध्यात्मिक जीवन की ओर गति-प्रगति करने के लिए मनुष्य को अपनी इस विवेक बुद्धि या सम्यग्दष्टि का विकास, पालन और संवर्धन करना चाहिए। और वह अध्यात्म प्रेरक पुस्तकों एवं ग्रन्थों का स्वाध्याय करने से ही हो सकता है। स्वाध्याय से विचारों का संशोधन-परिमार्जन होता है, उत्कृष्ट विचारों से ही मनुष्य का आत्मिक विकास होता है। विचार उदात्त और ऊर्ध्वगामी होने से मनुष्य निम्न परिधियों को पार करके आत्मिक उच्चता पर स्वतः ही गति करता है। विचारों की उदात्तता एवं निर्विकारिता स्वाध्याय पर निर्भर है। स्वाध्याय के आलोक में व्यक्ति अपनी निकृष्टताओं एवं निम्न वृत्तियों को दूर कर अपनी आत्मिक शक्तियों का विकास कर सकता है। स्वाध्याय से प्रेरणा पूज व्यक्तित्व के धनी पुरुषों की खोज-परख करके उनके ग्रन्थों या शास्त्रों को सर्वोत्कृष्ट सत्संग का माध्यम बना सकते हैं । महान् पुरुषों द्वारा लिखे हुए ग्रन्थ या पुस्तक उनके ही बौद्धिक शरीर हैं। उनमें उनका ज्ञानात्मा बहत व्यवस्थित ढंग से बोलता है। स्वाध्याय : परम तप
____ इसीलिए स्वाध्याय को परम तप कहा गया है। जैन शास्त्रों में स्वाध्याय को आभ्यन्तर तप माना गया है, क्योंकि इससे निकृष्ट एवं दूषित विचारों को छोड़कर सद्विचारों और सद्भावनाओं के पथ पर चलने की प्रेरणा मिलती है, जिससे आत्मा परिशुद्ध हो सके । यही कारण है कि शास्त्र में साधु-साध्वियों के लिए दिन और रात्रि के आठ पहर में से चार पहर भगवान महावीर ने स्वाध्याय के लिए नियत किये हैं, क्योंकि स्वाध्याय से साधक को सर्वश्रेष्ठ तत्त्वज्ञान प्राप्त होगा जिससे वह श्रेष्ठ दिशा में गति कर सकेगा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org