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१०२ तमसो मा ज्योतिर्गमय या ग्रन्थों का अध्ययन सम्यक नहीं है, जिनसे मनुष्य पापकर्म में प्रवृत्त हो, जिनसे जीवन में दुर्व्यसन एवं दुर्गुण बढ़ें, जो मनुष्य को आत्मा से विमुख करके आत्मिक गुण-ज्ञान-दर्शन-चारित्र या तप के मार्ग से भ्रष्ट करके स्वच्छन्द भोगवाद की ओर प्रेरित करता हो। अतः स्वाध्याय का प्रयोजन उस सत्साहित्य का अध्ययन करना है, जो हमें अधःपतन से बचाए, हमारे जीवन को सद्विचार, सदाचार और सद्व्यवहार की ओर प्रवृत्त करता हो। स्वाध्याय : ज्ञान का स्रोत
___ यद्यपि आत्मा का निजी गुण ज्ञान है । आचारांग सूत्र में स्पष्ट बताया है
'जे विन्नाणे से आया, जे आया से विन्नाणे' जो विशिष्ट ज्ञान है, वह आत्मा है और जो आत्मा है, वह विशिष्ट ज्ञान है।
ज्ञान कहने से आजकल के विद्यालयों में पढ़ाया जाने वाला, व्यावहारिक ज्ञान या दर्शनशास्त्र, तर्कशास्त्र, भूगोल, खगोल, इतिहास आदि का शिक्षण-प्रशिक्षण भी ज्ञान कहलाता है, जो व्यावहारिक ज्ञान के रूप में प्रसिद्ध है । ये जीविकोपार्जन एवं लोकव्यवहार में निपुणता प्राप्त करने के लिए हैं । किन्तु यहाँ स्वाध्याय के द्वारा अजित किया जाने वाला ज्ञान ऐसा होना चाहिए, जो आत्मा के सम्बन्ध में विशिष्ट प्रेरणात्मक चिन्तन दे सके, जिसके प्रकाश में व्यक्ति हेय, ज्ञेय और उपादेय को जान-पहचान सके और सांसारिक जीवन में भी नैतिक स्थिरता, सन्तुलन एवं आत्मिक उन्नति का पथ-प्रदर्शन कर सके। जिस ज्ञान को प्राप्त करने से मनुष्य आध्यात्मिक दृष्टि से अपनी मान्यताओं, भावनाओं एवं आदर्शों के अनुसार चलने की प्रेरणा प्राप्त करता है।
स्कूली ज्ञान तो करोड़ों मनुष्यों को है, उससे थोड़ा-सा लौकिक विकास अवश्य होता है, परन्तु आन्तरिक महानता नहीं बढ़ती, वह चरित्र निर्माण तथा अहिंसा-सत्यादि के पथ पर बढ़ने की प्रेरणा नहीं देता । आत्मनिर्माण, आत्मविकास, आत्मभावों में रमण की तथा चरित्र-गठन की प्रेरणा दे, सत्प्रवृत्तियों एवं सद्विचारों को जगा दे वही सम्यग्ज्ञान कहलाता है । वही जीवन को सफल बनाता है । इस प्रकार के सम्यग्ज्ञान से रहित मनुष्य अन्य पशुओं की तरह ही अनगढ़, अपरिष्कृत, प्रवृत्तियों और आवेगों से परि
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