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आत्मनिर्माण का सर्वतोभद्र उपाय : स्वाध्याय १०१ आवश्यकता हैं, उसी प्रकार स्वाध्याय को भी जनजीवन की प्रमुख आवश्यकता माननी चाहिए। जो अनेकों दुर्भावनाएँ, दुश्चिन्तन, दुष्प्रवृत्तियाँ एवं बुरी आदतें जीवन में घर कर गई हैं, उनकी हानियों को भली-भांति समझने एवं त्यागने के लिए प्रेरणा देने में स्वाध्याय की शक्ति प्रमुख है। शास्त्रों में इसीलिए कहा गया है
ज्झायस्मिरओ सया' जिज्ञासु और मुमुक्षु साधक गृहस्थ हो या साधु सदा स्वाध्याय में रत रहते हैं।
अच्छी पुस्तकों के स्वाध्याय से व्यक्ति हेय, ज्ञेय और उपादेय को भलीभांति जान लेता है, फिर ज्ञपरिज्ञा से जाने हुए हेय का, प्रत्याख्यानपरिज्ञा से त्याग करता है। इसी प्रकार जो सद्भावनाएँ, सत्प्रवृत्तियाँ, सच्चिन्तन, सद्वचन आदि जिन सद्गुणों का विकास करना आवश्यक है, उनकी उपयोगिता समझने और ग्रहण करने के लिए उत्साह उत्पन्न करने का कार्य भी स्वाध्याय को अधिकाधिक प्रोत्साहन देने से ही सम्भव होता है।
आत्मनिरीक्षण, आत्मनिर्माण एवं आत्मशुद्धि का प्रमुख विधान स्वाध्याय को माना गया है । इसी से आत्मा को परमात्मा की प्राप्ति होती है । महर्षि व्यास का कथन है
'स्वाध्याय-योग-सम्पत्त्या परमात्मा प्रकाशते ।' स्वाध्याययुक्त योग से ही परमात्मा का प्रकाश मिलता है। स्वाध्याय के मुख्य अर्थ और प्रयोजन
स्वाध्याय के दो अर्थ उसकी यथार्थता सूचित करते हैं। एक हैसुसुष्ठ आ समन्तात् अध्ययनं स्वाध्याय:, अर्थात्-सम्यग प्रकार से चारों ओर का अध्ययन स्वाध्याय है।
दूसरा अर्थ होता है-स्वस्य अध्ययनं = स्वाध्यायः अथवा स्वस्मिन् आ समन्तात् ध्यानं स्वाध्यायः । अर्थात्-अपना अपनी आत्मा का सांगोपांग अध्ययन अथवा अपने अन्दर में सब ओर से एकाग्र होकर ध्यान = चिन्तन करना।
___ इन दोनों अर्थों पर विचार करने से एक बात स्पष्टतः फलित होती है कि सब ओर से विचार-विमर्श करके सम्यक् अध्ययन करना। उन पुस्तकों
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