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१०० तमसो मा ज्योतिर्गमय कि बच्चे को खेलने-कूदने भी दिया करो तो मां कहती-खेल-कूद, यात्राभ्रमण, इतिहास, दर्शन, सिनेमा आदि सब कुछ पुस्तकों में है, जो बालक की विचारशक्ति के लिए ईंधन का काम करेंगे तथा इसकी विचार-उष्मा को सतत प्रज्वलित रखेंगे । नौ वर्ष तक की उम्र में वह बाइबिल पढ़ चुके थे। जिससे उनका मन आध्यात्मिक भावनाओं में संस्कारित हो चुका था। स्वाध्याय से उनमें ताकिक शक्ति, बौद्धिक पैनापन, चिन्तन के नये आयामों का उदय हुआ। उन्होंने जीवन के अन्तिम क्षणों में और चाहे सब कुछ छोड़ दिया हो, लेकिन पढ़ने का क्रम जीवन के अन्तिम श्वास तक बराबर बनाए रखा। स्वाध्याय का सर्वतोमुखी लाभ
सरदार बल्लभ भाई पटेल, राधाकृष्णन्, लोकमान्य तिलक, सुभाष चन्द्र बोस आदि भारतीय इतिहास के नक्षत्रों ने जीवन में जो कुछ पाया, वह सब उनकी स्वाध्याय सुरुचि का सुफल था। पुस्तकों के स्वाध्याय ने ही उनके मन-मस्तिष्क में एक नये दर्शन की पृष्ठभूमि निर्मित कर दी थी। वस्तुतः स्वाध्याय मनुष्य की प्रसुप्त क्षमताओं को अनेकगुना सक्रिय बना देता है । हर व्यक्ति में विचार की सत्ता होती है, स्वाध्याय उसे पैनी कर देता है। जिनकी पढ़ने की अभिरुचि नहीं होती, कहना चाहिए उनके विचारों को फलने-फूलने के लिए खाद-पानी नहीं मिलता । फलतः वे असमय में ही मुझा कर नष्ट हो जाते हैं । निराशाएँ, उद्विग्नताएँ, व्याकुलताएँ एवं मानसिक, शारीरिक व्याधियाँ ऐसे ही लोगों को घेरती हैं। स्वाध्यायशील व्यक्ति तो आपदाओं, विपन्नताओं और व्याधियों के प्रसंग पर भी प्रसन्नतापूर्वक जीवन जी लेते हैं। वे प्रायः इष्ट-वियोग और अनिष्ट-संयोग से कदापि नहीं घबराते । व्यक्ति के आत्मिक परिमार्जन-परिशोधन की प्रक्रिया उसी से ही सम्पन्न होती है। दीन-हीन, मलिन जीवन को ऊँचा उठाने एवं निर्मल बनाने की शक्ति स्वाध्याय से मिलती है । इतिहास साक्षी है कि संसार में जितने भी महान् एवं सफल व्यक्ति हुए हैं, उन्हें आगे ले जाने वाला किसी न किसी अच्छी पुस्तक का स्वाध्याय रहा है। स्वाध्याय : व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय चरित्र निर्माण का आधार
स्वाध्याय में व्यक्तिगत, समाजगत एवं राष्ट्रगत चरित्र निर्माण की विशिष्ट शक्ति है । इसे जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता के रूप में मानना चाहिए। जिस प्रकार आहार-निहार-नींद आदि जीवन की प्रमुख
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