SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६८ तमसो मा ज्योतिर्गमय महापुरुषों के साथ घुल-मिलकर जब भी जी चाहे और जितनी देर चाहे व्यक्ति बातचीत कर सकता है, उनके पवित्र विचारों से लाभ उठा सकता है । आज भी ऐसे तत्त्वदर्शी चारित्रात्मा मनीषियों के साथ मानसिक सम्बन्ध बनाया जा सकता है। वैसे तो उनके पास न तो सतत निवास सम्भव है और न ही वे अपना निवास जिज्ञासू व्यक्ति के पडौस में बना सकते हैं । व्यावहारिक मार्ग स्वाध्याय का ही है, जिसमें अपनी भावनात्मक दुनिया अलग ही बसाई जाए, जिसमें ग्रन्थों और पुस्तकों के माध्यम से श्रेष्ठ महामानवों को ही निवास करने हेतु आमन्त्रित किया जाये । उसमें प्रेरणाप्रद घटनाओं की हलचलें मानसपथ पर आती रहें, बल्कि चलचित्र की तरह मन-महापुरुषों की जीवनियाँ, गतिविधियाँ एवं नैतिक-धार्मिक दृढता अपने मन मस्तिष्क में दृढ़तापूर्वक जड़ें जमा सकें व अनायास ही स्मरण आती रहें। श्रेष्ठ सज्जनों से परामर्श एवं वार्तालाप उनके साहित्य द्वारा बड़ी आसानी से हो सकता है। जीवित महान् आत्माओं से सतत सम्पर्क या परामर्श अथवा वार्तालाप कर सकना या ऐसा करने के लिए उनके पास जाने और उन्हें अवकाश होने या न होने की भी कठिनाई है, परन्तु उनके साहित्य के स्वाध्याय के माध्यम से यह सुविधा हर समय उपलब्ध हो सकती है। उनके साहित्य से अपने प्रयोजन के प्रसंग ढूंढ़ने और पढ़ने का कार्य आसान है । यह अपनी सुविधानुसार कभी भी किया जा सकता है। स्वाध्याय : महापुरुष को अपने सांचे में ढालने का उपाय स्वाध्याय भूतकालीन और महापुरुषों को अपने जीवन के सांचे में ढालने का अद्भुत उपाय है। एक स्पेनिश पत्रकार ने एक बार महात्मा गाँधीजी से प्रश्न किया-"आप अभी जिस रूप में हैं, वह बनने की प्रेरणा आपको कहाँ से मिली ?" गाँधीजी ने तपाक से कहा-"कर्मयोगी श्रीकृष्ण, महापुरुष ईसामसीह, दार्शनिक रस्किन और सन्त टालस्टाय से।" उसने अपनी आशंका व्यक्त करते हुए पूछा- "ये सब तो आपके समय में नहीं रहे फिर आपको इनसे प्रेरणा कैसे मिली ?" इस पर गाँधीजी ने कहा-“यह ठीक है कि महापुरुष सदैव बने नहीं रहते; समय के साथ उन्हें भी जाना पड़ता है, किन्तु विचारों और पुस्तकों के रूप में उनकी आत्मा इस भूमण्डल पर चिरकाल बनी रहती है। जिन्हें लोग कागज के निर्जीव पन्ने समझते हैं, उन्हीं में उन महापुरुषों की आत्मा लिपटी हुई रहती है। उनकी जीवित और दिवंगत दोनों ही अवस्थाओं में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy