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आत्मनिर्माण का सर्वतोभद्र उपाय : स्वाध्याय ९७ कदाचित् सत्संग का लाभ लेने के लिए दो-चार दिन के लिये चले भी जाएँ तो उतने भर से वातावरण नहीं बनता। अन्तश्चेतना प्रभावोत्पादक त्याग-वैराग्य, तत्त्व-दर्शन एवं आत्म-जागृति के उत्कृष्ट रंग में भीगती नहीं। प्रतिदिन सत्संग का लाभ लेने के लिये उक्त व्यक्ति का जा सकना एक या दूसरे कारण से कहां बन पाता है ? . ऐसी स्थिति में आत्मा को श्रेष्ठता की दिशा में अग्रसर करने वाला प्रभावोत्पादक वातावरण जिज्ञासु और मुमुक्षु को स्वयमेव बनाना पड़ता है। मन-मस्तिष्क पर त्याग-वैराग्य की छाप छोड़ने वाला समानान्तर वातावरण उसे स्वयमेव निर्मित करना होता है, जो तथाकथित संलग्न संसार के आसक्तिमूलक वातावरण के प्रभाव को निरस्त कर सके । इस प्रकार का वातावरण चिन्तन-मनन, स्वयं अध्ययन, वाचन, चर्चा-विचारणा आदि के माध्यम से ही निर्मित किया जा सकता है, जो परोक्ष अधिक, प्रत्यक्ष कम होता है। स्वाध्याब हो इसका प्रथम चरण
इस दिशा में प्रथम चरण स्वाध्याय का है। जीवित या दिवंगत, निकटस्थ या दूरस्थ, मोक्षगामी या मुक्त महामानवों, तत्त्वदर्शी मनीषियों के साथ अपने मनोनीत विषय पर खुले दिल से विचार-विनिमय करते रहना, इसी उपाय से सम्भव हो सकता है। उनके पवित्र अनुभवयुक्त वाणी से उनके साथ चाहे जिस समय, चाहे जितनी देर तक सम्पर्क साधे रहना इसी सरल उपाय से सम्भव हो सकता है । इसे ही 'स्वाध्याय' कहा जाता है ।
स्वाध्याय के द्वारा अपनी रुचि के भविष्य का मार्गदर्शन देने वाले जीवन-चरित्रों का संग्रह किया जा सकता है, उन्हें मनोयोगपूर्वक पढ़कर उनमें से प्रेरणास्पद प्रसंग, जो अपनी वर्तमान परिस्थिति में कार्यान्वित हो सकें, अलग से नोट कर लेना चाहिए। अपनी मानसिक-कायिक दुर्बलताएँ, अभ्यस्त आदतें, विकृत अभिरुचियाँ निकृष्टता की ओर खींचती हैं । कुटुम्बियों के अपने स्वार्थ, मित्रों के दवाब तथा प्रचलित लोक-प्रवाह, सामान्य मानव को संयुक्त शक्ति से दुनियादारों द्वारा अपनाई हुई गतिविधियों को अपनाने के लिये प्रेरित करते हैं। श्रेष्ठता की प्रेरणा देने वाले तथा उत्कृष्टता की ओर बढ़ने का मार्गदर्शन देने वाले तथा प्रेरक प्रसंगों को स्वाध्याय के द्वारा ही इतिहास या महापुरुषों के जीवन चरित्र के पृष्ठों पर ही खोजा जा सकता है। स्वाध्याय से संसार भर के श्रेष्ठ सम्यग्ज्ञानी
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