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ह६ तमसो मा ज्योतिर्गमय
की परिस्थितियाँ कितनों को प्राप्त होती हैं । इसीलिए प्राचीनकाल में ऐसे प्रभावोत्पादक उत्कृष्ट वातावरण के लिए साधक को त्यागी एवं चारित्र - शील गुरुजनों के सान्निध्य में रहकर ग्रहण - शिक्षा और आसेवन-शिक्षा से अभ्यस्त होना पड़ता था । तथाकथित आश्रमों का वातावरण बाह्यरूप से आध्यात्मिक लगता है, परन्तु भीतर घुसने पर वहाँ भी प्रायः वे प्रवृत्तियाँ एवं परिस्थितियाँ नये परिवेश में मंडराती रहती हैं, जिनसे छूटने के लिए उन आश्रमों का आश्रय लिया गया था । एकान्त गुफा में एकाकी या सामूहिक रूप से रहने की कल्पना भी विकट है । वहाँ निर्वाह की सामान्य व्यवस्था भी स्वावलम्बनपूर्वक नहीं बन सकती, उसके लिए किसी सम्पन्न व्यक्ति का सहारा लेना पड़ता है । प्राचीनकाल में उनके अनेक कार्य सेवाभाव से दूसरे कर देते थे, अथवा उच्च साधक स्वयं यथालाभ - संतुष्ट रह कर अल्प साधनों से जीवन निर्वाह कर लेते थे । परन्तु अब वे सारे अनभ्यस्त झंझट स्वयं ही ओढ़ने पड़ते हैं अथवा शरीर यात्रा की आवश्यकताएं इतनी बढ़ गई हैं कि एकाकी जीवन का अधिकांश समय उसी की उधेड़बुन में लग जाता है जिसके लिए घर-बार छोड़कर एकान्त में रहने का खतरा उठाया गया, वे प्राचीनकालिक परिस्थितियाँ इस युग में नहीं रहीं, और न ही स्वल्प सन्तोषी कष्टसाध्य क्रम अपना कर भी प्रसन्न रहने की साधकों की मनःस्थिति है । ऐसी दशा में आत्मा के परिष्कार के लिए प्रेरक वातावरण जुटा पाना अतीव कठिन है ।
जो ऐसे निःस्पृही, त्यागी एवं चारित्रात्मा सन्त, सज्जन, मनीषी या तत्वज्ञानी इस संसार में हैं, उनकी एक कठिनाई है - अत्यधिक व्यस्तता की । परन्तु जिस व्यक्ति ने मानव जीवन का मूल्य समझा है और उसका श्रेष्ठतम उपयोग करना चाहता है, उस अध्यात्मपथ के जिज्ञासु को उसकी सुविधा एवं इच्छा के अनुरूप वे वैसा उत्कृष्ट वातावरण और इतना अवकाश शायद ही दे सकें। ऐसे महान साधकों के दर्शन, वन्दन, उपासना आदि के स्वल्प सम्पर्क से ही जन साधारण को संतोष करना पड़ता है । कदाचित उनके सामूहिक प्रवचन का लाभ वह उठा सकता है, परन्तु प्रभावोत्पादक वातावरण तो उतने अल्प समय में मिलना दुष्कर है । जैसे सांसारिक वातावरण अन्तश्चेतना को भौतिकता के रंग में रंगकर, मोह लोभ के जटिल बन्धनों में दृढ़ता से जकड़ देता है, वैसा ही आध्यात्मिक वातावरण हो, जो आत्मा को अध्यात्मिकता के रंग में रंग सके और उत्कृष्ट व्यक्तित्व बना सके ।
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