________________
आत्मनिर्माण का सर्वतोभद्र उपाय : स्वाध्याय ६५ सांसारिक लोगों की प्रमुख अभिरुचि शारीरिक वासना के उपभोग में तथा मानसिक संग्रह सृष्णा में जकड़ी रहती है। अहकार का परिपोषण ही उनकी महत्वाकांक्षाओं का केन्द्र होता है । जीवन निर्वाह की आवश्यकताएँ स्वल्प होते हुए भी मनुष्य वासना, लालसा, तृष्णा और अहंता से प्रेरित होकर सतत व्यस्त रहता है, उनकी पूर्ति के साधनों को जुटाने में । वह आकांक्षाओं की जितनी पूर्ति करता जाता है उतनी ही वे सुरसा की तरह तीव्र और वृद्धिंगत होती जाती हैं। ऐसी स्थिति में सुरदुर्लभ मानव-जीवन को सफल बनाने के अवसरों का अधिकांश भाग इसी आपाधापी, भगदड़ और उधेड़बुन में लग जाता है। स्वजन-सम्बन्धियों से लेकर मित्रों और हितैषियों का सारा परिकर अपने ही माने हुए विधि-विधानों, रोतिनीतियों, और परम्पराओं को अपनाये रहने के लिए दबाब डालता है; खुले दिल-दिमाग से चिन्तन-मनन एवं अनुप्रेक्षण करने को अवकाश नहीं देता । चारों ओर की परिस्थिति, वातावरण एवं घटना क्रम भी प्रायः निम्नतर होता है, जो अन्तश्चेतना पर उसी प्रकार के संस्कारों के सांचे में ढलने को बाध्य करता है। अतः अधिकांश जनता का जीवन लक्ष्य भी मौज-शोक के साधन जुटाना और वैषयिक सुखों से लिपटे रहना होता है। तदनुसार उनकी चेष्टाएँ और आकांक्षाएं भी अनैतिक एवं भ्रष्ट तरीकों से भौतिक सुख-साधन सम्पादित करने की होती हैं। इससे ऊँचे उठकर आत्मा की उन्नति और उत्कृष्टता तथा स्व-भाव में रमणता, आत्मशक्तिआत्मशान्ति में वृद्धि के विषय में सोचना-समझना सम्भव ही नहीं हो पाता । यदि आत्मनिर्माण को महत्व देकर उसके परिष्कार एवं परिपोषण को अपनाना हो तो उपर्युक्त वातावरण से दूर रहकर नये, शुद्ध एवं उत्कृष्टता-प्रेरक वातावरण में अपने को रखने के साधन जुटाने पड़ेंगे; क्योंकि श्रेष्ठता, उत्कृष्टता और आदर्शवादिता की दिशा में चलना हो तो उसके लिए वैसा प्रेरक वातावरण अपेक्षित होगा। जहाँ ऐसा परिकर मिले, वहाँ रहने का भी प्रभाव पड़ता है। सामान्यतया मनुष्य जीवन बाह्य परिस्थितियों और व्यक्तियों के सम्पर्क से ही बनता है। मनुष्य को जैसा भी वातावरण मिलता है, उसका व्यक्तित्व, गुण, कर्म, स्वभाव उसी ढांचे में ढलता है। यदि मानव-जीवन के महत्व को समझा गया है और उसकी श्रेष्ठ उपलब्धि के प्रति आकर्षण है तो उसका उपाय यही है कि उच्चस्तरीय वातावरण में रहा जाए । परन्तु ऐसा प्रभावोत्पादक आध्यात्मिक वातावरण ढूंढने पर भी सहज में कहां मिलता है ? फिर उसमें रहने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org