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आत्मबल : सर्वतोमुखी सामर्थ्यं का मूल
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होता है, जिनकी शरण ग्रहण करने पर या जिनका अनुसरण करने पर स्वपर-कल्याण का पथ प्रशस्त हो ।
विश्वास और समर्पणता : अन्तरात्मा की सूल पंजी
देवाधिदेव, गुरु और धर्मतत्व पर जितना गहरा विश्वास और समर्पण भाव होगा, साधक उतना ही शीघ्र मोक्ष या परमात्मा (सिद्ध) के निकट पहुँचेगा | अतः आत्मशक्ति की प्रखरता बढ़ाने में विश्वास और समर्पणभाव दोनों आवश्यक हैं । विश्वास और समर्पण भाव अन्तरात्मा की वे दिव्य शक्तियाँ हैं, जिन पर आत्मिक प्रगति की समग्र सम्भावनाओं का दारोमदार है ।
ज्ञानादि आत्मिक शक्तियों की अभिवृद्धि के लिए चारों आवश्यक
तन और मन मस्तिष्क दोनों ही आन्तरिक विश्वास और समर्पण भाव से प्रेरित एवं संचालित होते हैं । मन अपने विषय के अनुरूप इन्द्रिय में चेतना का विद्युत्प्रवाह चल पड़ने से अपना काम करता है । इन दोनों को आदर्श और उत्कृष्टता के साथ विश्वास एवं समर्पण भावपूर्वक जोड़ दिया जाए तो उच्चस्तरीय आत्मशक्ति बढ़ जाएगी, जिससे आत्मा उच्चस्तरीय आत्मिक प्रगति की दिशा में द्रुत गति से आगे कूच करती जाएगी । अतः विश्वास और समर्पण भाव, ये दोनों आत्मा की ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य ( पराक्रम) की शक्ति की अभिवृद्धि करते हैं । निष्कर्ष यह है कि मोक्ष अर्थात् - आत्मा के परम उत्कर्ष के शास्त्रोक्त चारों पथ - ( ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप ) इन चारों को आत्मशक्ति साधनों से प्रशस्त किये जा मकते हैं । आत्मा की ज्ञानादि चारों शक्तियों की अभिवृद्धि इन चारों साधनों से की जा सकती है । निःसन्देह विश्वास और समर्पण भाव से ज्ञान और दर्शन की तथा संकल्प और संयम से तप और चारित्र की शक्ति बढ़ती है ।
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