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________________ ६२ तमसो मा ज्योतिर्गमय विश्वास बहुत ही हानिकारक दुष्परिणाम उत्पन्न करता है । अतः विवेकयुक्त विश्वासों को ही मानना चाहिए। जिन आदर्शों और सिद्धान्तों को मान्यता दो जानी है, उनके सम्बन्ध में आवश्यक छानबीन करके यथार्थता और उपयोगिता का निर्णय किया जाए । नैतिकता, आध्यात्मिकता और उच्चस्तरीय आदर्शवादिता का तथ्यपूर्ण समर्थन करने वाली मान्यता पर दृढ़ विश्वास करके चलना चाहिए। जैनागमों में किसी भी आदर्श या सिद्धान्त को स्वीकार करके क्रियान्वित करने का क्रम इस प्रकार है - श्रद्धा, प्रतीति, रुचि, स्पर्शना, पालना और अनुपालना । श्रद्धा से लेकर स्पर्शना तक के क्रम में उस सिद्धान्त या मान्यता को ठोक-बजा कर अपनाया जाता है । अध्यात्मपथ के पथिकों को विवेकपूर्वक पूर्वोक्त रीति से अपने आदर्शों की यथार्थता और लक्ष्य की प्रखरता के सम्बन्ध में असंदिग्ध मनःस्थिति का अन्त करना चाहिए और लक्ष्य एवं साधन पर प्रगाढ़ विश्वास का प्रखर चुम्बकत्व उत्पन्न करना चाहिए । इसी से आत्मशक्ति प्रबल होगी एवं आध्यात्मिक उत्कृष्टता के विषय में स्वतः सफलता मिलती जाएगी । चतुर्थ आधार : सनगना जात्मशक्ति को प्रखर बनाने का सर्वाधिक प्रबल एवं समर्थ अन्तिम ब्रह्मास्त्र है - समर्पणता । 'अध्पाणं वोसिरामि' कहकर साधक जब अपने परम आदर्श या आदर्श - शिरोमणि महापुरुष के प्रति अपना व्युत्सर्ग कर देता है, तब वह चारों ओर से अपनी समस्त आत्म-शक्तियों को एकमात्र एक लक्ष्य में केन्द्रित - समर्पित कर देता है । इस प्रकार की समर्पणता में उत्कृष्टता के प्रति इतनी गहन संवेदना और भव्यभावपूर्ण उत्सुकता होती है, कि जिसके कारण उसे पाने के लिए साधक अपना सर्वस्व (अपने माने हुए शरीर तथा शरीर से सम्बन्धित समस्त सजीव-निर्जीव पदार्थ) न्योछावर करने के लिए उद्यत हो जाता है । इस सम्बन्ध में दीपक और पतंगों का चन्द्र और चकोर का, पपीहा और स्वातिबिन्दु का उदाहरण अधिक संगत बैठता है । प्यार बराबर वालों से तथा स्नेह छोटों से किया जा सकत है, उत्सुकता तो व्यसन और विनोद के लिए भी हो सकती है, प्रणय तो पति-पत्नी में होता है, और उमंग एवं ललक तो दुष्कर्मों के लिए भी उठती है, लिप्सा और तृष्णा तो अर्थ, पद-प्रतिष्ठा आदि पाने के लि भी हो सकती है; किन्तु समर्पण भाव तो उच्च आदर्शों एवं शुद्ध धर्म के सिद्धान्तों अथवा अध्यात्म की पराकाष्ठा पर पहुँचे हुए पूर्ण या शुद्ध पर‍ आत्मा या परमात्मा के मार्ग पर चलने वाले साधक ( गुरुदेव ) के प्रति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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