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________________ आत्मबल : सर्वतोमुखी सामर्थ्य का मूल ९१ रही है, शक्ति सम्पन्न होती जा रही है, आत्मोत्कर्ष का उद्देश्य भी इसी प्रकार सफल हो सकता है। इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखते हुए तस्वज्ञ श्रमणों, श्रमणोपासकों एवं आत्मबल बढ़ाने के लिए संकल्प बल बढ़ाने के साथ-साथ सत्रह प्रकार के शास्त्रोक्त संयम के आचरण में कठोरता अपनाई है । अपने साथ कड़ाई और दूसरों के साथ नरमी यही संयम की नीति है । तपस्या, तितिक्षा, परीषह सहन, उपसर्ग-विजय, समिति-गुप्ति आदि की अनेकानेक साधनाएँ संयम का ही उद्देश्य पूर्ण करती हैं। योग-दर्शन में वर्णित कतिपय चमत्कारी सिद्धियाँ चित्तवृत्तियों के संयम से प्राप्त उपलब्धियाँ ही हैं। इस प्रकार संकल्प और संयम ये दोनों शरीर और मन की संयुक्त उपलब्धियाँ हैं । ये दोनों आत्मबल की साधना के पूर्वार्द्ध हैं। इनका सीधा सम्बन्ध भौतिक (शारीरिक, मानसिक आदि) गतिविधियों के साथ है । उत्तरार्ध के रूप में विश्वास और श्रद्धा इन दोनों की गणना, भावसंवेदनाओं में होती है । ये अन्तरात्मा के गहन स्तर से निकलते हुए अमृतस्रोत हैं । विश्वास : तृतीय आधार यह आत्मशक्ति को प्रखर बनाने का तृतीय आधार है। विश्वास से दढ निश्चय की स्थिति उत्पन्न होती है जिससे चंचलता, व्यग्रता, अस्थिरता, सन्देह, आदि का बिखराव नष्ट होता है। किसी विषय में जब तक कोई सुस्थिर स्थापना न हो जाए तब तक मन शंकाशील बना रहता है, ऐसी स्थिति में कोई निश्चित कदम नहीं उठ पाता। विश्वास उस अनिश्चितता का अन्त करता है, जो आत्मबल में बाधक है, क्योंकि आत्मबल पूरे मनोयोग से कार्य करने की तत्परता उत्पन्न करता है। ___ संदिग्ध मनःस्थिति में किसी सिद्धान्त सम्मत मान्यता को अपनाना कठिन होता है, क्योंकि निष्ठा या अगाध विश्वास के आधार पर ही मान्यता को प्राणवान और क्रियान्वित करने की शक्ति उत्पन्न होती है। अन्धविश्वास से सतर्क रहकर सम्यक् विश्वास को अपनाएं विश्वास के क्षेत्र में अन्धविश्वास के घुस पड़ने की पूरी गुजाइश बनी रहती है। सामाजिक, पारिवारिक, सांस्कृतिक एवं साम्प्रदायिक अन्धपरम्पराएं, पूर्वाग्रह, अन्धविश्वास एवं अन्धमान्यताएँ लोगों के मन-मस्तिष्क पर बुरी तरह छाई रहती हैं और लोगों की शक्ति को बर्बाद कर रही हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र में भी ऐसा होना सम्भव है। अध्यात्म क्षेत्र का अन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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