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________________ तमसो मा ज्योतिर्गमय के बिष-बीज बोती है ? इसका अवांछनीय नग्ननृत्य कहीं भी देखा जा है । छल-प्रपंच रचकर कमाये गए धन का विलासिता में, व्यसनों में, ठाठ-बाट में, आतंक-अनाचार में व्यय करना शारीरिक और मानसिक असंयम का ही एक प्रकार है। वासना, तृष्णा, लोभ, लालसा, द्रोह एवं मोह आदि को संयत किया जाए तो इन दुष्प्रयोजनो में लगने वाली शक्ति की बर्बादी रुक सकती है और योजनाबद्ध रूप से सत्प्रयोजनों में लगी हई वह शक्ति हर दृष्टि से कल्याणकारी, अशुभ कर्म क्षयकारी और आत्मशक्ति संवर्द्धनकारी बन जाती है। फूटे बर्तन में दुध दुहने से दुधारु गाय पालने का तथा दुग्धपान का सौभाग्य निरर्थक चला जाता है, इसी प्रकार शरीर और मन में कषायकल्मषों और विषय-वासनाओं के अगणित छिद्र हो रहे हों, तो आत्मिक शक्ति बटोरने के बजाय वह शक्ति रिस-रिस कर समाप्त हो जाएगी । शक्ति का अपव्यय करने से वह शक्ति खत्म हो जाती है, फिर इस जन्म में या अगले जन्मों में भी वह शक्ति प्राप्त होनी अतीव दुष्कर है। आत्मबल के उपार्जन का लाभ भी तभी मिल सकता है, जब उसे संयमपूर्वक अनर्थ-प्रवाह से रोका जाए। पानी के उच्छखल बहते प्रवाह को रोककर विशाल बांध बनाए जाते हैं, फिर उस पानी के संग्रह का सदुपयोग करके सिंचाई, बिजली, पनचक्की आदि कितने ही लाभ प्राप्त किये जाते हैं। ठीक यही बात संयम के विषय में है। तन, मन, सद्गुण, धन, वचन एवं मस्तिष्क की क्षमताएं किसी के पास भले ही स्वल्प मात्रा में हों, यदि वह इन्हें अपव्यय से बचाकर सत्कार्यों में, स्वपरकल्याण-साधना में सदूपयोग करता है तो उसका प्रतिफल बलवानों, धनवानों और विद्वानों की सम्मिलित शक्ति से भी बढ़कर श्रेयस्कर हो सकता है । इसे हम संयम का ही चमत्कार कह सकते हैं। एकाग्रता से शक्ति को अपने लक्ष्य में केन्द्रित किया जाता है, उससे व्यक्ति साहित्य, विज्ञान, कला, शिल्प आदि में पारंगत हो जाता है, इसी प्रकार आत्मिक चिन्तन में एकाग्र होने पर आत्मिक शक्ति के उच्च शिखर पर पहुँचा जा सकता है। यह एकाग्रता और कुछ नहीं मस्तिष्कीय संयम है, इसे ही शास्त्रीय भाषा में सुध्यान कहा जाता है । मनःसंयम, मस्तिष्कीय संयम, विचार-संयम, वाणी-संयम, इन्द्रिय-संयम, समय-संयम, स्वभाव-संयम, आदि के रूप में आस्रवों को रोककर यदि उसी संचित आत्म-सामथ्र्य को संवर में, सदाचार में, सत्प्रयोजनों में निष्ठापूर्वक लगाया जा सके तो समझना चाहिए कि आत्मा कषायादि कालुस्यों को मिटाकर उत्तरोत्तर शुद्ध हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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