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________________ आत्मबल : सर्वतोसुखी सामर्थ्य का मूल ८६ करना सम्भव नहीं है। व्रत, प्रत्याख्यान, तप, त्याग, तितिक्षा, परीषहसहन, उपसर्ग-विजय, कषाय-विजय, मौन, ब्रह्मचर्य, अहिंसादि महाव्रत आदि के अनेकों विधि-निषेध आत्मानुशासन-पालन में सहायक हैं। ये सब दृढ़ संकल्पबल के बिना कथमपि सफलतापूर्वक सम्पन्न नहीं हो सकते। प्रातःकाल नित्य कृत्य से निवृत्त होने पर नियत स्थान और समय पर नियत मर्यादाओं का पालन करते हुए उपासना के लिए सुखपूर्वक बैठने तथा मेरुदण्ड सीधा रखना, शारीरिक अनुशासन तथा नियत मात्रा में नियत विधान से उपासना क्रम सम्पन्न करने की आत्मानुशासन की प्रक्रिया संकल्प बल के साथ ही जूड़ो हई होती है। अस्तव्यस्तता एवं अव्यवस्था को इसी कठोरता, नियमितता, व्यवस्थितता एवं उपयोगिता के आधार पर निरस्त किया जा सकता है । इस प्रकार के आत्मानुशासन को फौजी अनुशासन की तरह निबाहते चलने पर मनोनिग्रह की सफलता मिलती है । यही आत्मवल प्राप्ति का प्रथम चरण है। ऐसा आत्मशक्ति सम्पन्न साधक जीवन-संग्राम में बड़े-बड़े आदर्शवादी पुरुषार्थ एवं पराक्रम करने में समर्थ होता है। द्वितीय आधार : संयम संकल्पबल अभ्यास का विस्तृत प्रयोग क्षेत्र 'संयम' का मैदान है। परीक्षा-स्थल भी यही है। संयम का अभ्यास जीवन को संतुलित और स्वभाव में घुसो हुई उच्छृखलता, स्वच्छन्दता एवं अनाचारिता का दमन करने में उपयोगी है। इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय में मर्यादातिक्रमण करने को मचलती हैं, वे खुली छूट चाहती हैं। उन पर अकुश न लगाया जाय तो वे उच्छं खल बनकर तन, मन, वचन, आत्मिक गुण धन एवं सम्मान में आग लगाती चली जाएँगी और आत्मा ने जो कुछ शक्ति उपार्जित की है, उसे स्वाहा कर देंगी। जननेन्द्रिय का असंयम किस प्रकार मनुष्य को निस्तेज, निवीर्य एवं खोखला बना देता है, इसके उदाहरणों से संसार का इतिहास भरा पड़ा है । जिह्वा लोलुपता किस प्रकार पेट और शरीर को खराब करती है, सड़ाती है, नाना रोग उत्पन्न करती है, यह किसी से छिपा नहीं है । तृष्णा, लोकषणा एवं वित्तषणा के वशीभूत होकर लोग किस प्रकार पापकर्मों को संचित करने लगते हैं और उसे संकीर्ण दुष्प्रयोजनों में लगाकर किस प्रकार अनर्थ उत्पन्न कर रहे हैं, यह भी किसी से अज्ञात नहीं है । अहता-ममता एवं मदोन्मत्तता मनुष्य को किस प्रकार दम्भ, मिथ्याडम्बर एवं मिथ्या-प्रदर्शन का घटाटोप रचती और कैसे ईर्ष्या-द्वेष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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