________________
जैन धर्म और इस्लाम धर्म
८१
यथाख्यात चारित्र : अविसंवादन योग
जैन धर्म का एक पारिभाषिक शब्द है - यथाख्यात चारित्र। हमारे आचरण का चरम बिन्दु है - यथाख्यात चारित्र - अविसंवादन योग। सत्य क्या है? हम सत्य को बहुत स्थूल रूप में स्वीकार कर लेते हैं - वाणी से झूठ मत बोलो। यह सत्य की स्थूल व्याख्या है। सत्य केवल वाणी के साथ ही नहीं जुड़ता। यह सत्य का एक पहलू है, उसकी समग्र परिभाषा नहीं है। केवल वाणी का असत्य ही असत्य नहीं होता। काया का भी असत्य होता है, भाव का भी असत्य होता है। एक असत्य है विसंवादन योग – कहना कुछ और करना कुछ। यह शायद सबसे बड़ा झूठ है, दुनियां को धोखा देना है। व्यक्ति बहुत बड़ी-बड़ी बातें बनाता है लेकिन चलता है बिलकुल दूसरी दिशा में। यह बहुत बड़ा धोखा है। जैन धर्म ने आचरण के साथ इस बात को जोड़ा - कथनी और करनी में संवादिता होनी चाहिए। संवादिता का अंतिम बिन्दु है यथाख्यात चारित्र। जिस बिन्दु पर पहुंचकर कथनी और करनी की सारी दूरियां समाप्त हो जाती हैं, उस बिन्द की उपलब्धि का नाम है यथाख्यात चारित्र। इस संदर्भ में इस्लाम धर्म और जैन धर्म का सिद्धान्त बहत निकट आ जाता है। स्वतंत्रता का प्रश्न
अली ने मोहम्मद साहब ने पूछा - हम स्वतंत्र हैं या परतंत्र? मोहम्मद साहब ने कहा - खड़े हो जाओ। अली महाशय खड़े हो गए। मोहम्मद साहब बोले - एक पैर को सीधा कर दो। अली ने वैसा ही किया। मोहम्मद साहब का दूसरा निर्देश था - अब दूसरे पैर को भी सीधा कर दो। अली ने कहा - मैं दूसरा पैर सीधा कैसे कर सकता हूं? मैं गिर जाऊंगा। मोहम्मद साहब बोले - तुम एक पैर को सीधा करने में स्वतंत्र हो और दूसरे पैर को सीधा करने में परतंत्र हो। इसका अर्थ है- तुम स्वतंत्र भी हो, परतंत्र भी हो।
जैन आचार्य के सामने प्रश्न आया - हम कर्म करने में स्वतंत्र हैं या परतंत्र? आचार्य ने कहा - एक आदमी खजूर के पेड़ के सामने खड़ा है। उसके मन में इच्छा जागी, इस पेड़ पर चढ़ जाऊं। वह उस पेड़ पर चढ़
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org