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भेद में छिपा अभेद
अर्थ है – ईश्वर के प्रति समर्पण। हम तुलनात्मक दृष्टि से देखें। जैन धर्म है आत्मा या परमात्मा के प्रति समर्पित और इस्लाम धर्म है खुदा या अल्लाह के प्रति समर्पित। अंतर इतना है - जैन धर्म ईश्वर कर्तृत्व को स्वीकार नहीं करता और न ही न्याय-अन्याय की बात ईश्वर के साथ जोड़ता है। जहां सर्वज्ञता का प्रश्न है वहां जैन धर्म भी परमात्मा को सर्वज्ञ मानता है और इस्लाम में भी ईश्वर को सर्वज्ञ माना गया है। धर्मान्तरण का प्रश्न
एक प्रश्न है धर्मान्तरण का। इस्लाम को विस्तारवादी माना जाता है। यह कहा जाता है - इस्लाम के लोगों ने जबरदस्ती अपने धर्म में दूसरे लोगों को दीक्षित किया। यह बात उत्तरकालीन हो सकती है। कुरान में इसका निषेध है। यह बात करान सम्म्मत नहीं है। करान कहता है - तुम लोगों में धर्म की सहिष्णुता होनी चाहिए। धर्म के विषय में जोर-जबर्दस्ती का कोई स्थान नहीं है। यह है इस्लाम का सिद्धान्त। जैन धर्म का भी यही सिद्धान्त है। जैन धर्म ने हदय परिवर्तन को महत्त्व दिया- दूसरों के हृदय को बदलो, दिल को बदलो, मस्तिष्क को बदलो। समझा-बझाकर धार्मिक बनाओ। जबर्दस्ती किसी से धर्म नहीं कराया जा सकता। यही सिद्धान्त इस्लाम का है - धर्म के मार्ग में जोर-जबर्दस्ती का कोई अवकाश नहीं है। कुरान का कथन __ आचार या चरित्र की दृष्टि से देखें तो ऐसा लगता है – सचाई दो होती ही नहीं है। साधना के मार्ग पर चलने वाले व्यक्तियों का अनुभव दो नहीं होता। जिस व्यक्ति ने मन को एकाग्र किया है. मन को साधा है. कषाय को जीता है, समता का जीवन जिया है, वह किसी भी देश में, किसी भी काल में हो, सत्य तक पहुंच जाता है। कुरान का एक वाक्य है- 'हे श्रद्धावानो ! ऐसी बात क्यों कहते हो, जो करते नहीं, ईश्वर के निकट यह बात बहुत निन्द्य है कि वह बात कहो, जो करो नहीं।' कुरान का यह वाक्य कितना मूल्यवान है - तुम कहो कुछ और करो कुछ, इससे ईश्वर प्रसन्न नहीं होता। कथनी और करनी की समानता पर बल देने वाला यह महत्त्वपूर्ण सूत्र है।
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