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जैन धर्म और इस्लाम धर्म
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अपनाने के लिए तैयार नहीं हैं। यह सामाजिकता की समस्या जटिल स्थिति पैदा कर देती है। आचार्य श्री तुलसी ने इस दिशा में जो प्रयत्न किया, यदि उसे समाज मूल्य देता तो जैन धर्म सामाजिकता की दृष्टि से कमजोर नहीं रहता। संकीर्णता मिटे
लाडनूं का प्रसंग है। आचार्य श्री ने हरिजनों को प्रवचन सुनने का आह्वान किया। अनेक हरिजन प्रवचन सुनने के लिए लालायित बने। समाज के कुछ प्रमुख लोगों को इस बात का पता चला। उन्होंने कहा - यह नहीं हो सकता कि हरिजन आए और हमारे साथ बैठे। हम देखते हैं- वे कैसे आएंगे पंडाल में। हम दरवाजे में खड़े रहेंगे, कोई भीतर नहीं आ सकेगा। ये सारी बातें आचार्यश्री के पास पहुंची। आचार्यवर ने कहा- यह हमारा निर्णय है - हरिजन पंडाल में आ सकते हैं, प्रवचन सुन सकते हैं। उन्हें प्रवचन सुनने से रोकने का अर्थ है - हमें यहां रहने से रोकना। आचार्यवर के इस कथन से लोगों का आवेश मंद पड़ा। हरिजन आए, महाजनों के साथ बैठकर प्रवचन सुना।
हमारा समाज इससे भी कुछ आगे बढ़ा। श्रीडूंगरगढ़ में विशाल हरिजन सम्मेलन आयोजित किया गया। उसमें लगभग चार हजार हरिजनों ने भाग लिया। सम्मेलन में भाग लेने वाले हरिजनों को भोजन कराया गया। भोजन करने वाले थे हरिजन और भोजन परोसने वाले थे जैन समाज के संपन्न और समाजसेवी लोग। वह एक अनोखा दृश्य था। यदि वह क्रम स्थाई बनता, हरिजनों को अपनाने की मानसिकता का निर्माण होता तो जैन धर्म का महान् तत्त्व दूसरों के लिए सहज ग्राह्य बनता, भाईचारे की भावना व्यापक बन जाती।
समस्या यह है - आज भी यह संकीर्णता मिटी नहीं है। समाज में वह समर्थ नेतृत्व नहीं है, जो इस बात को आगे बढ़ा सके। यही कारण है - गुणात्मकता की दृष्टि से महान् होते हुए भी जैन धर्म संख्या की दृष्टि से बहुत समृद्ध नहीं बन पा रहा है। जरूरी है सौहार्द का विकास हम इस्लाम का समाज-दर्शन देखें। वह बहुत ग्राह्य है। उसमें
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