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बैन धर्म और वैदिक धर्म
आचरण करेगा पर उसका केन्द्र आत्मा नहीं रहेगी। उसका केन्द्र होगा ब्रह्म या ईश्वर। आध्यात्मिक परिपूर्णता का जो केन्द्र है, वह आत्मा नहीं है, कोई दूसरा है- ब्रह्म या ईश्वर है। मुक्त आत्मा : विलय या स्वतंत्र अस्तित्व __ अध्यात्म की परिपूर्णता का केन्द्र कोई दूसरा नहीं है, अपनी आत्मा है। यह तथ्य जैन दर्शन ने स्वीकार किया, दूसरे दर्शनों ने नहीं। यह एक नई स्थापना है। मोक्ष होने के बाद भी आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व रहता है। सारे दर्शन मोक्ष होने के बाद आत्मा को विलीन कर देते हैं। जैसे सब नदियां बहती हैं और अंत में समुद्र में मिल जाती हैं वैसे ही मुक्त होने के बाद आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाती है। जैन दर्शन का मोक्ष का सिद्धान्त पूर्ण स्वतंत्रता का सिद्धान्त है- मुक्त होने के बाद, सब कर्मों का विलय कर देने के बाद भी आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व बना रहता है। आत्मा के विलीन होने के संदर्भ में यह तर्क भी दिया जाता है- हिन्दुस्तान आजाद बना तब पचासों राजा थे। बीकानेर, जोधपुर, हैदराबाद आदि नगरों के अलग-अलग राजा थे। स्वतंत्र भारत में उन सबका विलय हो गया। आज कोई राजा नहीं रहा, सब विलीन हो गए। वैसे ही मुक्त होने के बाद सारी आत्माएं परमात्मा में विलीन हो जाती हैं। चार पहलू
जैन दर्शन विलय की बात को स्वीकार नहीं करता। उसके अनुसार प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है, सबका अपना अस्तित्व होता है, मुक्त होने के बाद भी प्रत्येक आत्मा अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखती है। वह किसी का अंश नहीं है। वैदिक धर्म के अनुसार वह एक अंश है और सब उसके अंशभूत हैं। जैन दर्शन कहता है- कोई किसी का अंशी नहीं है और कोई किसी का अंश नहीं है किन्तु सब स्वतंत्र हैं, प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है। यह है स्वतंत्रता का सिद्धान्त।
पुरुष का प्रामाण्य, वीतरागता, सर्वज्ञता और आत्मा की मोक्ष अवस्था में स्वतंत्रता- ये चार ऐसे पहलू हैं, जो जैन दर्शन और वैदिक दर्शन की भिन्नता को स्पष्ट करते हैं। यदि हम मूल स्थापनाओं, सैद्धान्तिक
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