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भेद में छिपा अभेद
स्थापनाओं के भेद को छोड़कर केवल सतही आधार पर भेद की विवक्षा करें तो शायद दोनों दर्शनों के साथ न्याय नहीं होगा। जैन दर्शन का आशावाद . जैन दर्शन की ये जो चार स्थापनाएं हैं, उनका प्रतिफलन है आशावाद। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर यह आशावाद जागता है
मैं प्रमाण बन सकता हूं। मैं स्वयं प्रमाण हूं। मुझे किसी दूसरे के प्रमाण की अपेक्षा नहीं है। मैं वीतराग बन सकता हूं। वीतरागता की उपलब्धि मेरे हाथ में है।
मैं सर्वज्ञ बन सकता हूं। विश्व की प्रत्येक हलचल को मैं साक्षात् जान सकता हूं, देख सकता हूं। मैं मुक्त होने के बाद अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रख सकता हूं।,
ये चार ऐसे आशावादी दृष्टिकोण जैन दर्शन ने दिए हैं, जिनके आधार पर प्रत्येक व्यक्ति के मन में पुरुषार्थ और पराक्रम की भावना जागती है। व्यक्ति के सामने यह लक्ष्य बिन्दु बना रहता है- मुझे यह होना है, वीतराग, केवली या सर्वज्ञ बनना है। यह लक्ष्य-केन्द्रित आशा उसे सतत पुरुषार्थ की प्रेरणा देती है। इस महान् पुरुषार्थवादी और आशावादी दृष्टिकोण के साथ हम दोनों धर्मों की तुलना करें, दोनों के समान स्तर और मौलिक स्थापनाओं के अंतर को समझने का प्रयत्न करें तो हम दोनों महान् धर्मों के साथ न्याय कर पाएंगे।
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