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भेद में छिपा अभेद
प्रधानतः ब्रह्म या ईश्वरवादी दर्शन है। आचार्य शंकर ने ब्रह्म की सत्ता को वास्तविक माना और संसार को माया माना। उन्होंने पारमार्थिक और व्यावहारिक - दो दृष्टियों से विचार किया। जैन दर्शन ने निश्चय और व्यवहार - इन दो नयों का अवलंबन लिया। शंकराचार्य ने बताया- मानवीय दृष्टि से या व्यावहारिक दृष्टि से विचार करें तो प्रकृति, जगत्, ईश्वर- ये सब सत्य हैं। पारमार्थिक दृष्टि से विचार करें, ब्रह्म की दृष्टि से विचार करें तो ब्रह्म सत्य है, जगत्, प्रकृतिइनका कोई अस्तित्व नहीं है। सिद्धान्त का दुरुपयोग
यह वाक्य बहुत प्रसिद्ध हैं- 'ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या' ब्रह्म सत्य है और जगत् मिथ्या है। इस सिद्धान्त का व्यवहार में लोगों ने दुरुपयोग भी किया है। एक व्यक्ति ने दूसरे व्यक्ति से कुछ रुपये उधार लिए और इस लिखित अनुबंध के साथ लिए - दो माह बाद ब्याज सहित रुपए लौटा दूंगा। समय बीत जाने पर भी उसने रुपए नहीं लौटाए। रुपया न आने पर उस व्यक्ति ने ब्याज सहित रुपए मांगे। उसने कहा- मैंने तुम्हें जो रुपए दिए थे, उसे चुकाने की अवधि आ गई है। कब दिया था? तुम्हारे हाथ से लिखा हुआ साक्ष्य मौजूद है। मैं नहीं दूंगा। तुम सचाई को झुठला रहे हो।
तुम नहीं जानते- देने वाला झूठा है, लेने वाला भी झूठा है और लिखने वाला भी झठा है। ब्रह्म सत्य है और सब झूठ है। तुम क्यों मांगने आए हो?
सिद्धान्त के दुरुपयोग का यह एक निंदर्शन है। परिपूर्णता का केन्द्र
एक दृष्टिकोण रहा- जितना पर्यायवाद है, वह मिथ्या है। वह शाश्वत नहीं है, स्थाई नहीं है। केवल ब्रह्म सत्य है, इसका अर्थ है-- परा और अपरा - दोनों विद्याओं की स्वीकृति। अपराविद्या है तो साथ में परा विद्या भी है। एक आदमी परा विद्या की साधना करेगा, धर्म का
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