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जैन धर्म और वैदिक धर्म
एक दर्शन है, वैशेषिक एक दर्शन है। इन्हें धर्म कहने में कुछ सोचना पड़ता है। सांख्य दर्शन भी है और धर्म भी है। सांख्य का साधना पक्ष बड़ा प्रबल है पर उसे वैदिक मानना बहुत कठिन है। वह बिलकुल अवैदिक दर्शन है।
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मीमांसा का अभिमत
वेद के दो मुख्य ग्रंथ हैं- पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा । मीमांसा का अभिमत है - मनुष्य वीतराग नहीं हो सकता । जो शरीरधारी है, जिसमें वात, पित्त और कफ है, वह वीतराग कैसे बनेगा ? वायु का दौर आएगा, व्यक्ति उछलने लग जाएगा, उसका सिर चकराने लगेगा। पित्त का प्रकोप होगा तो व्यक्ति गुस्से में बकने लग जाएगा। कफ प्रबल होगा तो लोभ और लालच तीव्र बन जाएगा। लोभ के कारण आदमी क्या-क्या अनर्थ नहीं करता । वात, पित्त और कफ का पुतला वीतराग नहीं हो सकता। यह मौलिक अन्तर है वीतरागता की स्वीकृति और अस्वीकृति का। वैदिक धर्म में वीतराग होता है ईश्वर और जैन धर्म में वीतराग होता है मनुष्य । संदर्भ : सर्वज्ञता
भेद का तीसरा बिन्दु है सर्वज्ञता । जैन दर्शन कहता है - मनुष्य सर्वज्ञ हो सकता है। मीमांसा का मत है - मनुष्य सर्वज्ञ नहीं हो सकता । ईश्वर या ब्रह्म सर्वज्ञ हो सकता है, मनुष्य नहीं । वीतरागता और सर्वज्ञता का बहुत निकट का संबंध है। जो वीतराग होगा, वह सर्वज्ञ हो जाएगा। सर्वज्ञ के लिए वीतराग होना अनिवार्य है। वीतराग हुए बिना कोई व्यक्ति सर्वज्ञ नहीं बन सकता। आचार्य उमास्वाति ने लिखा- कैवल्य की उपलब्धि के लिए मोह का क्षय होना जरूरी है। ईश्वर सर्वज्ञ होता है, यह बात अनेक दर्शनों ने स्वीकार की है। जैन दर्शन का सिद्धान्त है - मनुष्य वीतराग भी हो सकता है और सर्वज्ञ भी हो सकता है। शायद संपूर्ण भारतीय चिन्तन और दर्शन में इस स्थापना को स्वीकृत करने वाला अकेला दर्शन है - जैन दर्शन ।
संदर्भ : आत्मवाद
भेद का चौथा बिन्दु है - ईश्वरवाद या आत्मवाद | वैदिक दर्शन
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