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भेद में छिपा अभेद
देगी। जैन धर्म कहता है - बुराइयों को छोड़ो, अच्छाइयों को स्वीकार करो। वैदिक धर्म भी यही कहता है। यदि कोई धर्म यह कहता- अच्छाइयों को छोड़ो, बुराइयों को अपनाओ तो भेद की बात समझ में आती। बौद्ध धर्म हो, ईसाई या इस्लाम धर्म हो सब यही कहते हैं अच्छे आदमी बनो, अच्छाइयों को आत्मसात् करो, सबके प्रति प्रेम करो, किसी को मत सताओ। जहां ये सब सामान्य स्वर मिलते हैं वहां सामान्य में खोए हुए असामान्य को खोजना बड़ा कठिन हो जाता है।
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समान है आचार संहिता
यह स्पष्ट है - जहां तक धर्म का प्रश्न है, आचार-संहिता का प्रश्न है वहां समान तत्त्व ज्यादा हैं। प्रायः सभी धर्मों ने अहिंसा की बात कही, सत्य पर बल दिया। मानवीय मूल्य, नैतिक मूल्य और आध्यात्मिक मूल्य - इन सबके विकास की बात प्रत्येक धर्म ने कही है । अन्तर हो सकता है मात्रा या सीमा का । किसी की सीमा छोटी है और किसी की व्यापक है। किसी धर्म ने कहा • बुराई मत करो। एक सीमा बन गई । किसी ने इस सीमा को विस्तार दे दिया - बुराई करो मत, कराओ मत और उसका अनुमोदन भी मत करो। मनुस्मृति ने सीमा को और विस्तार दे दिया - हिंसा करो मत, कराओ मत, उसका अनुमोदन भी मत करो। इतना ही नहीं, हिंसा से बनी हुई चीज को खाओ भी मत । हिंसा से बनी चीज खाना भी हिंसा है। यह सीमा का विस्तार है।
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अपरिग्रह का संदर्भ
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अपरिग्रह के संदर्भ में कहा गया परिग्रह करो मत, परिग्रह रखो मत, रखाओ मत। उसका अनुमोदन भी मत करो। एक गृहस्थ के लिए ज्यादा संग्रह मत करो। प्रश्न हुआ - संग्रह कितना करें ? भागवतकार ने लिखा जितना एक दिन के लिए जरूरी है, संग्रह करो। शायद यह बात किसी को अच्छी नहीं लगेगी। आदमी
कहा गया
उतना
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सोचता है
सात पीढ़ी तक काम आएं, इतना संग्रह कर लूं। यह सामान्य भारतीय व्यक्ति की चिन्ता होती है। इतना धन कमाऊं, जिससे सात पीढ़ी सुख से जी सके। एक ओर सात पीढ़ी की चिन्ता है,
दूसरी
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