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जैन धर्म और वैदिक धर्म
ओर भागवत का कथन है जितने से पेट भरे, उतने पर तुम्हारा अधिकार है। इससे अधिक का जो संग्रह करता है, वह चोर है। उसे दण्ड देना चाहिए।
यावद् भ्रियेत जठरं तावद् युक्तं हि देहिनाम् । अधिकं योभिमन्येत, स स्तेनो दण्डमर्हति । ।
आधारभूत व्रत
परिग्रह के संदर्भ में यह एक सीमाकरण है । यदि यह सीमा की बात हो तो ' अमीर-गरीब की भेद-रेखा ही न रहे, समाजवाद साम्यवाद की आवश्यकता ही न रहे। प्रत्येक धर्म ने अहिंसा के बारे में सोचा है, अपरिग्रह के बारे में सोचा है, सत्य, अस्तेय और ब्रह्मचर्य के बारे में सोचा है। भारतीय धर्मों की यह एक सामान्य आचार संहिता बन गई। पांच व्रत या महाव्रत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- ये सामान्य व्रत रहे हैं। महात्मा गांधी ने ग्यारह व्रत बना दिए । किसी ने नौ व्रत का विधान किया । किन्तु ये पांच व्रत आधारभूत व्रत रहे हैं। इस सारे परिप्रेक्ष्य में भेद की बात अस्वाभाविक-सी लगती है। आरोपण जैसा लगता है भेद ।
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आरोपण भेद का
एक भारी भरकम और मोटा-ताजा आदमी हाथी पर चढ़कर जा रहा था। काफी लोग इकट्ठे हो गए। चारों तरफ हंसी के फव्वारे छूटने लगे। हाथी पर बैठा आदमी बोला - भाई ! क्या बात है? आप हंस क्यों रहे हैं? क्या आपने कभी हाथी को देखा नहीं ? लोग बोले- हमने हाथी तो देखा है, पर हाथी पर चढ़ा हुआ हाथी कभी नहीं देखा ।
भेद का आरोपण करना हाथी पर हाथी चढ़ाने जैसा है। धर्म एक हाथी है। भेद का आरोपण करना उस पर एक और हाथी चढ़ाना है। धर्म अनेक क्यों?
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हम आरोपण की भाषा में नहीं, यथार्थ की भाषा में सोचें। जहां मानवीय मूल्यों का प्रश्न है, वहां भेद को खोजना बहुत कठिन काम है । प्रश्न यह है - अगर भेद नहीं है तो जैन धर्म अलग क्यों है? वैदिक धर्म
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