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जैन धर्म और बौद्ध धर्म
कोई ऐतिहासिक कठिनाई नहीं लगती - वैदिक परंपरा में संन्यास का स्वीकार श्रमण परंपरा के प्रभाव से हुआ है। वैदिक परंपरा में गृहस्थ धर्म पर बहुत बल था । सारी स्मृतियों ने गृहस्थ धर्म का बहुत महत्त्व बतलाया। गृहस्थ में रहने को सबसे ज्यादा उत्तम कहा गया। यह प्रसिद्ध वाक्य रहा–गृहस्थाश्रम जैसा धर्म न हुआ है और न होगा। कहीं साधु बनने की बात आती तो कहा जाता तुम क्या कर रहे हो ? गृहस्थाश्रम को छोड़कर संन्यास आश्रम में भाग रहे हो ? यह पलायनवाद है । आज संन्यास को पलायनवाद कहा जा रहा है, यह कोई नया तर्क नहीं है, बहुत पुराना तर्क है, हजारों वर्ष पुराना तर्क है । साधु बनना पलायन करना है। घर में रहते हुए साधना करना काफी है। उस समय जो कर्मकाण्ड चल रहे थे, यज्ञ आदि चल रहे थे, उसमें संन्यास की कोई जरूरत ही नहीं थी । यज्ञ आदि के द्वारा देवताओं को प्रसन्न करना, इष्ट की साधना करना, यह गृहस्थ के लिए भी प्राप्त था । संन्यास की अलग से कोई आवश्यकता नहीं लगती थी। उस अवस्था में महावीर ने कर्मकाण्ड का विरोध किया, बुद्ध ने भी कर्मकाण्ड का विरोध किया।
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एक भ्रांति
इस संदर्भ में एक बहुत बड़ी भ्रान्ति पनपी । उस भ्रांति को जैन लोग भी यदा-कदा दोहरा देते हैं । वह भ्रान्ति यह है - कर्मकाण्ड, यज्ञ आदि का विरोध करने के लिए जैन धर्म का उद्भव हुआ । यह जो बात कही जाती है, वह सर्वथा गलत है। यदि इतनी छोटी बात के लिए जैन धर्म का उद्भव मानें तो जैन धर्म बहुत छोटा पड़ जाए । यह सचाई है - जैन धर्म ने कर्मकाण्डों का विरोध किया, यज्ञ का विरोध किया किन्तु इनका विरोध करने के लिए जैन धर्म बना, यह मानना भ्रान्तिपूर्ण और गलत है। महावीर ने जैन धर्म का जो विकास किया, वह अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्तवाद के दृष्टिकोण के विकास के लिए किया । एक परंपरा पहले से चली आ रही थी । महावीर ने उसमें अपनी ओर से बहुत सारी नई बातें जोड़ दीं। उन नई स्थापनाओं में विचार के पक्ष में अनेकान्त का दर्शन ' स्थापित किया। विचार के क्षेत्र में यह आज भी एक महत्त्वपूर्ण दर्शन बना हुआ है, जिसमें किसी बात को अस्वीकार नहीं किया जा सकता और किसी
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