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दी गई। वस्तुतः न जैन धर्म का उद्भव बौद्ध धर्म से हुआ है और न बौद्ध धर्म का उद्भव जैन धर्म से हुआ है। दोनों के पीछे जो पार्श्व की परंपरा है, उस परंपरा का प्रभाव - दोनों शाखाओं पर समान रूप से परिलक्षित होता है।
मध्यम मार्ग
भगवान् महावीर ने सारे दार्शनिक जगत् को देखा, दार्शनिक समस्याओं को देखा । समस्याओं का अनुशीलन कर महावीर ने विश्व को समझने के लिए, पदार्थ को समझने के लिए एक सिद्धान्त की स्थापना की और वह सिद्धान्त है अनेकान्तवाद । महावीर ने नित्य और अनित्य- दोनों अतिवादों को स्वीकार नहीं किया। एक अतिवाद है- एकान्त नित्यवाद का, कूटस्थ नित्यवाद का एक अतिवाद है एकान्त अनित्यवाद का, क्षणिकवाद का । महावीर ने बीच का मार्ग चुना। मध्यम मार्ग है अनेकान्त। बुद्ध ने एकान्त अनित्यवाद का प्रतिपादन किया- जो अस्तित्व है, वह सब क्षणिक है । नित्य कुछ भी नहीं है । नित्य की सर्वथा अस्वीकृति और अनित्य की ऐकान्तिक स्वीकृति । महावीर का जो विचारपक्ष है, वह न नित्य की ओर झुकता है और न अनित्य की ओर झुकता है। उसका नाम है नित्यानित्यवाद। यह ठीक है कि एक प्रवाह अनित्यता का है किन्तु इसके साथ यह भी सही है - कोई भी अनित्यता ऐसी नहीं है, जिसके साथ नित्यता न हो। कोई भी उत्पाद और व्यय ऐसा नहीं है, जिसके मध्य में ध्रुव तत्त्व न हो। कोई भी पर्याय ऐसा नहीं है, जिसके साथ अपर्याय और अपरिवर्तनशील घटक तत्त्व न हो। यह है नित्यानित्यवाद ।
भेद में छिपा अभेद
दार्शनिक प्रश्न : बुद्ध का चिन्तन
वह समय दार्शनिक चर्चाओं का समय था । वह उपनिषद् का काल था । दर्शन के संदर्भ में बहुत सारे प्रश्न पूछे जा रहे थे। उसी काल में महावीर और बुद्ध आए। उनके सामने भी वे प्रश्न आए । क्या आत्मा है ? क्या परलोक है? आदि आदि प्रश्न महावीर के सामने प्रस्तुत किए गए। महावीर ने इन सारे प्रश्नों का अनेकान्त की दृष्टि से समाधान दिया - आत्मा है भी और नहीं भी है। आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार भी किया, अस्वीकार भी किया। बुद्ध के सामने भी ये प्रश्न आए । बुद्ध ने
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