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भेद में छिपा अभेद
बिना अध्यात्म की बात, मैत्री उत्पन्न करने की बात सोची नहीं जा सकती। अनुप्रेक्षाओं का यह विकास, जैन दर्शन की साधना पद्धति में हुआ है, पातंजल योगदर्शन में नहीं हुआ है। ऐसे अनेक बिन्दु हैं, जो मनोनुशासनम् और पातंजल योगदर्शन के 'तुलनात्मक अध्ययन की आधार - भूमि बन सकते हैं । अपेक्षा है इन दोनों ग्रन्थों के गहन अनुशीलन की । यदि हमारा अध्ययन इस दिशा में आगे बढ़े तो प्राचीन और अर्वाचीन योग को एक नई दिशा उपलब्ध हो सकती है।
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