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मध्यस्थता - ये सारी ध्यान की निष्पत्तियां हैं। जो व्यक्ति ध्यान करता है, अध्यात्म की साधना करता है, उसमें इन चारों भावनाओं का विकास होना चाहिए। जिंस साधना से ये भावनाएं नहीं जागतीं, वह कोरी प्राण की साधना है। प्राणिक साधना में सिद्धियां होंगी, चमत्कार होंगे, किन्तु आध्यात्मिक साधना की जो निष्पत्तियां हैं, वे भाव - विशुद्धि से जुड़ी होती हैं- अगाध मैत्री का विकास, प्रमोद, करुणा और मध्यस्थता का विकास। ऐसी प्रमोद भावना जागती है, जिससे गुण - ग्रहण की भावना प्रबल बनती है। दूसरों का विकास व्यक्ति को प्रमोद और हर्ष से भर देता है। उसके मन में कभी ईर्ष्या पैदा नहीं होती । जैन दृष्टि से मनोनुशासनम् में भावनाओं का विकास मिलता है । सोलह भावनाओं में से चार भावनाएं पातंजल योगदर्शन में उपलब्ध हैं। साधना की दृष्टि से अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व आदि अनुप्रेक्षाओं का बहुत महत्त्व है | साधना की दृष्टि से यह एक बहुत बड़ा विकास है।
भेद में छिपा अभेद
मैत्री साधना नहीं, साधना की निष्पत्ति है। करुणा और प्रमोद, साधना नहीं, साधना की निष्पत्तियां हैं। बारह अनुप्रेक्षाओं का अभ्यास ही साधना है। महावीर ने दीक्षित होने से पहले गृहस्थ जीवन में छह मास तक अनुप्रेक्षाओं का अभ्यास किया था । अनित्य अनुप्रेक्षा, एकत्व अनुप्रेक्षा, अन्यत्व अनुप्रेक्षा का अभ्यास होगा तो मैत्री भावना का विकास होगा | मैत्री भावना का विकास इतना आसान नहीं है । प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या का भाव इतना प्रबल है कि मैत्री की बात सोचना भी कठिन है। 'मैत्री और प्रमोदभाव का विकास कोई खिलौना नहीं है, जिसे जब चाहे बाजार से खरीदा जा सके। आदमी की मनोवृत्ति ही ऐसी बनी हुई है कि वह हर कार्य में बुराई देखता है, कठिनाइयां पैदा करना पसन्द करता है। महान् आदमी का कार्य
एक बार सूरज के मन में विकल्प उठा- मैं दुनिया का कितना उपकार करता हूं। मैं प्रकाश देता हूं, सोए लोगों को जगाता हूं। मेरे उदित होते ही चोरी-डकैती सब बन्द हो जाती हैं। सारे लोग अपने काम-धन्धे में लग जाते हैं। मेरा अस्तित्व है तो सारी दुनिया है। मैं न रहूं तो दुनिया कुछ भी न रहे। मुझे जानना चाहिए - दुनिया मेरे बारे में क्या सोचती है?
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