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पातंजल योगदर्शन और मनोनुशासनम्
में आत्मा की स्पष्ट स्वीकृति नहीं है, वहां सांख्य और जैन दर्शन में आत्मा की स्पष्ट स्वीकृति है । इसीलिए सांख्य और जैन दर्शन - दोनों बहुत निकट आ जाते हैं। कुछ पश्चिमी दार्शनिकों ने, जिन्होंने शायद पूरी परंपरा का अध्ययन नहीं किया, यह कल्पना की - जैन दर्शन सांख्य दर्शन से निकला है। अतिनिकटता के कारण ऐसा भ्रम हो सकता है और ऐसा भ्रम हुआ भी है। सांख्य दर्शन में प्रकृति का जो कन्सेप्ट है, वह जैन दर्शन में नहीं है, फिर भी दोनों दर्शनों में बहुत निकटता है, यह कहने में संकोच नहीं होता। इसलिए पातंजल योगदर्शन और मनोनुशासनम् में सामीप्य का होना अस्वाभाविक नहीं है, किन्तु इनमें भेद नहीं है, यह भी नहीं कहा जा सकता। संदर्भ आत्मा का
सांख्य दर्शन आत्मा को कूटस्थ नित्य मानता है, सर्वथा शुद्ध मानता है । उसकी साधना पद्धति में आत्मा इसी रूप में स्वीकृत है। मनोनुशासनम् में आत्मा को भी परिणामी नित्य मानकर विचार किया गया है। आत्मा में भी पर्याय का परिणमन होता है। जैन दर्शन की दृष्टि से कोई भी द्रव्य ऐसा नहीं है, जिसमें परिणमन न हो । सांख्य दर्शन के अनुसार आत्मा अविकारी है किन्तु जैन दर्शन के अनुसार आत्मा वैसा नहीं है। जैन दर्शन के अनुसार कषाय आत्मा भी है, योग आत्मा भी है। जहां कषाय आत्मा और योग आत्मा है वहां आत्मा के साथ मन भी लगा हुआ है। जैन दर्शन की प्रक्रिया में स्थूल शरीर के बाद तैजस शरीर, तैजस शरीर के बाद कर्म शरीर, कर्म शरीर के बाद कषाय और उसके बाद चैतन्य है। चैतन्य के साथ कर्म परमाणु इतने जुड़े हुए हैं कि एक आत्मा के प्रदेश पर अनंत अनंत कर्म परमाणुओं के स्कन्ध चिपके हुए हैं । जैसे दूध और पानी मिल जाता है वैसी ही स्थिति आत्मा और कर्म की बनी हुई है। जैन दर्शन में साधना की प्रक्रिया केवल शरीर - शोधन की प्रक्रिया नहीं है, आत्म-शोधन की प्रक्रिया भी है। मुख्य है. आत्मा । साधना का सारा चिन्तन इसी आधार पर विकसित हुआ है।
संदर्भ अनुप्रेक्षा का
हम विकास की दृष्टि से देखें । मैत्री, प्रमोद, करुणा और
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