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भेद में छिपा अभेद
सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास-ये जितने भी परीषह हैं, द्वन्द्व हैं, इनको सहन करना तपस्या है। तपस्या का एक अर्थ है अनशन-आहार शुद्धि। जो व्यक्ति आहार-शुद्धि पर ध्यान नहीं देता, उसे निरोध की कल्पना ही नहीं करनी चाहिए। जो व्यक्ति आहार की शुद्धि को नहीं जानता, अपान की शुद्धि को नहीं जानता, वह निरोध की साधना को नहीं जानता। प्राण' से भी ज्यादा है अपान शुद्धि का महत्त्व। इन सबको उपलब्ध होने के लिए तपना पड़ता है। ऐसा कोई जादू का डण्डा नहीं है, जिसे घुमाया जाए और व्यक्ति योगी बन जाए। यदि ऐसा होता तो सारी दनिया ही योगी बन जाती। पर ऐसा होता नहीं है। 'शोधन को बलवान् बनाएं
बहुत कठिन है निरोध करना। निरोध की भूमिका तक पहुंचने के लिए काफी तप तपना पड़ता है, निर्जरा और शुद्धि करनी होती है। निर्जरा करते-करते एक क्षण ऐसा आता है, जब निरोध की भूमिका बनती है। व्यक्ति कितने काल से निर्जरा करता चला आ रहा है! अनन्त काल से यह क्रम चल रहा है। प्रत्येक प्राणी निर्जरा करता है। कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है, जो शुद्धि नहीं करता। प्रत्येक प्राणी थोड़ी-बहुत शद्धि तो करता ही है। जो साधना के मार्ग में जाना चाहता है, उसके लिए अधिकतम शुद्धि का मार्ग है। साधना के क्षेत्र में जाने वाले व्यक्ति के सामने शोधन और निरोध-दोनों दृष्टियां स्पष्ट होनी चाहिए। पहले शोधन को बलवान् बनाएं। आहार की शुद्धि करें। इन्द्रियों पर जो मल जमा हआ है, उसे हटाएं। श्वास-प्रश्वास की शद्धि करें। वचन-तंत्र-स्वर-यंत्र को शुद्ध बनाएं। शरीर और मन को शुद्ध करें। इससे वृत्तियां शुद्ध बनेंगी, निरोध की स्थिति प्राप्त होगी। समानता का धरातल - पातंजल योगदर्शन और मनोनुशासनम् के तुलनात्मक अध्ययन से समानता का जो धरातल प्रस्तुत होता है, उसका कारण है-सांख्य दर्शन का जैन दर्शन के अधिक निकट होना। सांख्य, जैन और बौद्ध-तीनों श्रमण परंपरा के दर्शन हैं। सांख्य दर्शन प्राचीन है। बौद्ध दर्शन इतना प्राचीन नहीं है। तीनों दर्शन निवृत्तिवादी हैं। अन्तर यह है-जहां बौद्धों
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