________________
५०
भेद में छिपा अभेद
योग : मौलिक परिभाषा
मनोनुशासनम् उत्तरकालीन रचना है इसलिए उसमें प्रारम्भ से ही शोधन और निरोध-दोनों का समावेश है। योग की एक सर्वथा नई परिभाषा, जो शायद किसी भी प्राचीन ग्रंथ में उपलब्ध नहीं है, मनोनुशासनम् में है। योग की यह बिलकुल मौलिक परिभाषा है-मनोवाक्काय-आनापान-इंद्रिय-आहाराणां निरोधो योगः। शोधनं च। पूर्व शोधनं ततो निरोधः। मन, शरीर, वाणी, आनापान, आहार और इन्द्रिय-ये छह पर्याप्तियां हैं, जीवनी शक्तियां हैं। इन सारी शक्तियों का निरोध करना, इसका नाम है योग। केवल चित्तवृत्तियों का निरोध नहीं, इन सबका निरोध है योग। चित्तवृत्तियों के निरोध का अर्थ है मन का निरोध। मन के साथ सारी चित्त की वृत्तियां आ जाती हैं। वाक् का निरोधं, शारीरिक प्रवृत्ति का निरोध, आनापान का निरोध, आहार और इन्द्रियों का निरोध-इन सबका निरोध होता है तब योग-समाधि घटित होती है। विपरीत क्रम से चलें तो सबसे पहले होगा आहार का निरोध। निरोध से भी पहले जरूरी है शोधन। जरूरी है शुद्धि
अहमदाबाद के एक योग विशेषज्ञ हैं श्री दिवाकर पाण्डे। योग के संदर्भ में उनसे चर्चा चली। श्री दिवाकर पाण्डे ने कहा-जब तक मलों की शुद्धि नहीं होती, योग की बात कभी सफल नहीं हो सकती। केवल स्थूल शरीर के मलों की शुद्धि ही जरूरी नहीं है बल्कि प्राणशरीर और सूक्ष्मशरीर में जो मल जमे हुए हैं, उनकी शुद्धि भी जरूरी है। जैन दर्शन की भाषा में कहें तो कर्मशरीर की विशुद्धि, तैजस शरीर की शुद्धि और तैजस शरीर के द्वारा आभामण्डल-लेश्या की शुद्धि, स्थूल शरीर की शुद्धि-जब तक इन सबका शोधन नहीं होता, निरोध की बात संभव नहीं बनती। रोकना कठिन नहीं है, पर प्रश्न है रोकें कैसे? जब तक शोधन नहीं होता, निरोध का प्रश्न समाहित नहीं होता। रोकने में कितने व्यवधान आते हैं! कितनी प्रतिक्रियाएं होती हैं! हम आदमी की बात छोड़ दें, जड़ वस्तु भी प्रतिक्रिया कर देती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org