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आचारांग और उपनिषद् (२)
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कर लें तो बात ठीक हो सकती है। इस स्थिति में यथार्थवाद बहुत समाधानकारक लगता है। यथार्थवाद
द्वैतवाद का मतलब है यथार्थवाद। दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व है - चेतन का अपना अस्तित्व और अचेतन का अपना अस्तित्व। लोक व्यवस्था का एक सूत्र है – न कभी ऐसा हुआ है , न कभी ऐसा होता है
और न कभी ऐसा होगा कि जीव अजीव बन जाए और अजीव जीव बन जाए। जीव और अजीव - इन दोनों में अत्यन्ताभाव है। दोनों कभी भी एक दूसरे में नहीं बदलते। यही है द्वैतवाद। द्वैतवाद का मतलब है - दुनिया में जो कुछ भी है, उसका मूल कारण एक नहीं है, दो हैं। चेतन
और जड़ की अपनी अपनी स्वतंत्र सत्ता है। समाधान-सूत्र
आज परामनोविज्ञान के क्षेत्र में यह चर्चा का विषय है – शरीर और मन का संबंध कैसे हुआ? शरीर अचेतन-जड़ है और मन चेतन है। दोनों की स्वतंत्र सत्ता है तो दोनों का संबंध कैसे? यह एक समस्या है। इसका समाधान अनेकान्त के द्वारा ही किया जा सकता है। शरीर का चेतना पर और चेतना का शरीर पर प्रभाव होता है, आचारांग की इस बात को स्वीकार करें तो समस्या को एक समाधान उपलब्ध होता है। उपनिषद् एवं आचारांग और इनसे उपजने वाले द्वैतवाद-अद्वैतवाद केवल दार्शनिक पहेली ही नहीं हैं, हमारे जीवन-व्यवहार से जुड़े हुए तत्त्व है। इनके आलोक में हम अपने जीवन-दर्शन की मीमांसा कर सकते हैं।
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