________________
भेद में छिपा अभेद
जितना बाहर से लेगा, वह उतना ही दबा रहेगा। जो व्यक्ति बाहर से जितना कम लेगा, वह उतना ही स्वतंत्र होता चला जाएगा, खिल जाएगा, व्याप्त हो जाएगा। जो जितना कर्ज लेता है, वह उतना ही भार से दब जाता है। अपनी पंजी से व्यापार करने वालों को कोई चिन्ता नहीं होती। हम सारा का सारा कर्ज ले रहे हैं, बाहर से आयात कर रहे हैं। आचारांग की प्रस्थापना
जैन दर्शन कहता है - जितना आदान है, उतनी ही हमारी शक्तियां दबी हुई हैं। हम जितना आदान का निषेध करेंगे उतना ही उत्तम होगा, हमारी अनन्त शक्ति का दरवाजा खुल जाएगा। __ आचारांग की यह महत्त्वपूर्ण प्रस्थापना है - हम किसी दूसरी शक्ति की अभिव्यक्ति नहीं हैं किन्तु अपनी स्वतंत्र सत्ता से संचालित हैं। जहां उपनिषद् एक ब्रह्म की स्थापना करता है वहां आचारांग अनेक ब्रह्म की स्थापना करता है। जैन दर्शन में एकात्मवाद नहीं, अनेकात्मवाद मान्य है। जहां अनेकात्मवाद मान्य होगा वहां द्वैतवाद की संभावना बहुत बढ़ जाएगी। जडाद्वैत : चैतन्याद्वैत
यह समझने में बड़ी कठिनाई है कि चैतन्य के द्वारा ही सारा संचालित हो रहा है, चैतन्य में से जड़ उपजा है। एक प्रश्न होता है - जब चैतन्य में इतनी ताकत है कि उसने जड़ को पैदा कर दिया तो चेतना को भरना उसके लिए कौनसी बड़ी बात थी? दूसरा प्रश्न है -अगर चैतन्य से जड़ पैदा होता है तो जड़ाद्वैतवाद, नास्तिकवाद या चार्वाक के इस सिद्धान्त - जड़ में से चेतना पैदा होती है - को कैसे रोका जा सकता है? इस दर्शन के समरांगण में दो सेनाएं आमने-सामने खड़ी हैं - एक है अद्वैतवादी सेना और दूसरी है जड़ाद्वैतवादी सेना। एक का कहना है - सब कुछ चैतन्य से पैदा हआ है तो दूसरी का कहना है - सब कुछ जड़ से पैदा हुआ है। पहली सेना का मोर्चा जितना शक्तिशाली है उतना ही शक्तिशाली है दूसरी सेना का मोर्चा। यदि चेतन से अचेतन पैदा हो सकता है तो अचेतन से चेतन पैदा क्यों नहीं हो सकता? इस प्रश्न का समाधान करना भी बहत कठिन है। यदि दोनों को ही सच मान लें, संधि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org