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________________ आचारांग और गीता (२) का अर्थ है- चित्तवृत्ति का निरोध। संयम का अर्थ भी यही है। गीता में उपरति को मूल्य दिया गया है। वृत्ति का मतलब है चंचलता ही चंचलता और उपरति का मतलब है - स्थिरता। गीता में भक्ति का भी बहुत प्रयोग किया गया है। श्री कृष्ण स्वयं कहते हैं - पश्य मे योगमैश्वर्यम् – मेरे ऐश्वर्यपूर्ण योग को देख। दर्शन आकाशी कल्पना नहीं है यदि गीता को मध्यस्थ दृष्टि से पढ़ें तो यह किसी एक दर्शन का प्रतिनिधि ग्रन्थ नहीं लगता। इसमें सर्वसंग्राहिता है। आचारांग और गीता के तुलनात्मक अध्ययन से यह तथ्य अधिक पुष्ट हो रहा है। समस्या यह है - दर्शन को केवल आकाशी कल्पना जैसा मान लिया गया और उसे जीवन की मुख्य धारा से तोड़ दिया गया। ऐसी मान्यता बन गई - जीवन है जीने के लिए, भोग भोगने के लिए और दर्शन है दिमागी व्यायाम के लिए। इस गलत धारणा से जीवन और दर्शन - दोनों का संबंध टूट गया। यह बहुत बड़ी समस्या है। कोरा तत्त्वज्ञान सीखने से क्या होगा? यदि तत्त्व या दर्शन जीवन में नहीं उतरा तो उसका ज्ञान किस काम का है? तत्त्वज्ञान को कर्म-ज्ञान की संज्ञा में लाएं, उसे जीवन में उतारकर जीवन जिएं तभी दर्शन और जीवन की सार्थकता हो सकती है। हम आचारांग को लें या गीता को लें। ये दोनों जीवन के प्रायोगिक दर्शन हैं। ये केवल जानने के लिए ही नहीं, जीवन में प्रयोग करने के लिए हैं। इन्हें शास्त्रों का भार न बनाएं, इनके मर्म को समझें। यदि दर्शन जीवनमय बन जाए, ज्ञान और आचार अलग-अलग न रहे तो हमारा जीवन परिपूर्णता की ओर बढ़ता चला जाएगा। गीता और आचारांग का मुख्य संदेश यही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003085
Book TitleBhed me Chipa Abhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages162
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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