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आचारांग और गीता (२)
तीन योग बतलाए गए। एक है ज्ञान का तट और एक है भक्ति का तट, दोनों के बीच में कर्म की नदी का प्रवाह चले तो जीवन निर्मल रहेगा। यदि प्रवाह के दोनों ओर ज्ञान और भक्ति के तट नहीं होते हैं या तटबंध टूट जाते हैं तो समस्याएं खड़ी हो जाती हैं। इनके बिना समग्र जीवन की व्याख्या नहीं की जा सकती। सामाजिक जीवन जीने का परिपूर्ण रास्ता यही है, शेष सारे रास्ते अपूर्ण हैं।
हम विश्व की स्थिति को देखें। लोगों ने कर्म पर बहुत बल दिया - कर्म करो, उत्पादन करो। उत्पादन और वितरण पर बल दिया, भक्ति पर बल नहीं दिया इसलिए उत्पादन और वितरण की प्रणाली भी सफल नहीं हो सकी। ज्ञान पर, यान्त्रिकी-आभियान्त्रिकी पर बल दिया गया किन्तु साथ में भक्ति का योग नहीं मिला। वे क्रम भी सफल नहीं हो सके। जीवन में जो सरसता आनी चाहिए थी, वह नहीं आ पाई। ज्ञान, भक्ति और कर्म - इन तीनों में एक की भी कमी रह जाती है तो बात पूरी नहीं होती। एक कमी है
खपुटाचार्य प्रसिद्ध जैनाचार्य हुए हैं। उनके पास आकाशगामिनी सिद्धि थी। हिन्दुस्तान के प्रसिद्ध रसायन-शास्त्री नागार्जुन ने इसकी उपलब्धि के लिए बहुत प्रयत्न किया। आकाशगामिनी विद्या को सीखने के लिए वे खपुटाचार्य की उपासना करने लगे। खपटाचार्य ज्योंहि आकाश से जमीन पर आते, नागार्जुन उनके पैर धोते। आचार्य पैर में कुछ रसायनों का लेप करते थे। नागार्जुन पैर धोने के बाद उस लेप को चखकर उसमें मिश्रित द्रव्यों को जानने का प्रयत्न करते। उस लेप में एक सौ आठ औषधियों का मिश्रण था। नागार्जुन ने उस लेप को चखते-चखते एक सौ सात औषधियां खोज ली। उन औषधियों से नागार्जुन ने लेप का निर्माण भी कर लिया। वे आकाश में उड़ते और थोड़ी दूर जाते ही वापस गिर जाते। नागार्जुन इस समस्या का हल नहीं ढूंढ पाए। उन्होंने आचार्य से निवेदन किया - गुरुदेव! मुझे एक सौ सात चीजें तो मिल गई हैं किन्तु एक तत्त्व का पता नहीं चला। आप कृपा कर बताएं - वह क्या है? आचार्य ने समाधान दिया - इस
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