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भेद में छिपा अभेद
मिलता। जिसमें श्रद्धा, समर्पण और विश्वास नहीं है, अहंकार उस पर हावी हो जाता है। जीवन की समग्रता
भक्तियोग है परम के साथ अपना संबंध जोड़ लेना। जिसने भक्ति को अपने जीवन में रमा लिया, उसके ज्ञान और कर्म निर्दोष हो जाते हैं। ज्ञान पवित्र है पर आदमी को ज्ञान का भी अहंकार होता है। कर्म तो अहंकार का घर है ही। जब अहंकार प्रबल बनता है, व्यक्ति गिरता चला जाता है। कर्म होता है तो उसके साथ अनेक दोष आ जाते हैं। कर्म की समस्या को सुलझाने के लिए भक्ति का होना बहुत जरूरी है।
उसके बिना जीवन में समग्रता या परिपूर्णता नहीं आती। आज बहुत सारे लोग कर्मठ हैं, कर्म करने में कुशल हैं किन्तु भक्तियोग के अभाव में कर्म स्वयं उलझन पैदा कर रहे हैं। कर्म का चक्र इतना बढ़ गया है कि व्यक्ति का जीवन दूसरों के लिए भार बन रहा है। कर्म के साथ आने वाले दोषों से बचने के लिए भक्ति का ५वच पहनना जरूरी है। इस स्थिति में यदि प्रदूषण पैदा हो तो वह भी समाप्त हो जाए। ज्ञान, दर्शन और चारित्र __ मोक्ष की दृष्टि से विचार करें तो यही तथ्य प्रस्फुटित होता है। तत्वार्थ सूत्र का प्रसिद्ध सूक्त है - 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।' हमारी श्रद्धा और विश्वास की शक्ति है सम्यग् दर्शन। हमारे जानने की शक्ति है सम्यग् ज्ञान। हमारा कर्मयोग है सम्यग् चारित्र। इन तीनों की समन्विति मोक्ष-मार्ग है। भागवत में लिखा है
योगस्त्रयो मया प्रोक्ताः नृणां श्रेयो विधित्सया।
ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च, नोपायोन्योस्ति कुत्रचित्।। ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग श्रेयमार्ग का प्रतिपादन करने के लिए हैं। श्रेय के ये ही उपाय हैं, दूसरे नहीं। दो तट : एक प्रवाह आज की भाषा में कहा जा सकता है - समग्र जीवन जीने के लिए
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