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आचारांग और गीता (१)
सर्वान् धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । अहं त्वां सर्वपापेभ्यो, मोक्षयिष्यामि मा शुच । ।
ज्ञान योग, कर्म योग सब झंझट हैं। इन्हें छोड़ो और मेरी शरण को स्वीकार करो। तुम चिन्ता मत करो, मैं तुम्हें सब पापों से मुक्ति दिला दूंगा।
अकर्ताभाव
यह माना जाता है - गीता की शैली अकरण प्रतिपादन की शैली है। करण शैली वह है, जहां अभ्यास की बात आती है
अभ्यास
करो और पाओ । आचारांग की भाषा है अपने मन, चित्त और बुद्धि का भगवान की आज्ञा में नियोजन कर दो। गीता की शैली है - मेरी 'शरण में आ जाओ। इन दोनों के तात्पर्य में कोई अंतर नहीं है।
गीता में कहा गया है
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अंहकार विमूढात्मा, कर्ताहमिति मन्यते । नैव किञ्चित् करोमीति, युक्तो मन्येत तत्वविद् ।
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जो अंहकार से विमूढ आत्मा है, वह यह मानता है कि मैं कर्ता हूं, किन्तु जो तत्वविद् है, वह यह मानता है कि मैं कुछ नहीं कर रहा हूं, सब कछ हो रहा है।
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समर्पण का स्वर
जहां कर्तृत्व का भाव आया वहां अहंकार का भाव आ गया। तेरापंथ धर्मसंघ में समर्पण की एक परंपरा रही है - कर्तृत्व को स्वयं पर आरोपित नहीं करना । जो तत्त्व को जानता है, गीता के सूत्र को पकड़ने वाला है, उसका स्वर होगा- मैं कुछ नहीं करता हूं, बस हो रहा है।
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आचारांग का सूत्रकार कहेगा सत्य के प्रति समर्पण करो। गीता: का सूत्रकार कहेगा - मेरे में चित्त लगाओ। गीता में पुरुष बोलता है और आचारांग में सत्य बोलता है। गीता में कृष्ण का मतलब सत्य से है । एक कृष्ण (सत्य) नहीं होता तो पाण्डवों की क्या दशा हो जाती ? हम इन वाक्यों का हार्द पकड़ें। तात्पर्य में अंतर कहां है? आचारांग का
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