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भेद में छिपा अभेद
हावार और गीता का कृष्ण तात्पर्यार्थ में एक ही स्तर पर हैं। शब्दों के भेद को निकाल दें तो साम्य उपलब्ध हो जाएगा। भरोसा साक्षात्कार पर
समस्या यह है - इन्द्रियों और बुद्धि का ज्ञान बड़ा स्थूल होता है। आंख और कान का ज्ञान बड़ा धोखा देने वाला ज्ञान होता है। हमें भरोसा करना चाहिए प्रज्ञा पर, साक्षात् ज्ञान पर। भरोसा करना चाहिए अपरोक्षानुभव पर। आचार्य शंकर ने कहा
बिना परोक्षानुभव, ब्रह्म ब्रह्मेति वादिने! अपरोक्षानुभव तो हुआ ही नहीं और ब्रह्म की बात कर रहे हैं। जब तक साक्षात्कार या प्रत्यक्षानुभूति नहीं होती तब तक किसी के बारे में क्या कहा जा सकता है? शब्दों या शास्त्रों की दुर्दशा केवल मानने वाले अनुयाइयों ने जितनी की है उतनी किसी ने नहीं की। कहने वाले अनुभव के स्तर पर थे और मानने वाले बुद्धि के स्तर पर भी पूरे नहीं
त्रा करें सत्य की
भगवान् महावीर ने इस बात पर बहुत बल दिया - मौत को तरना । तो कामना को तरना होगा। शंकर ने तीसरे नेत्र के द्वारा काम को लाया था। यह मार है, मोहजाल है। इसे कौन तर सकता है? हावीर ने कहा - जो सत्य के ज्ञान में उपस्थित हो जाता है, वही स मार को तर सकता है। श्री कृष्ण भी यही कहते हैं
मच्चित्ते सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात् तरिष्यति। सब दुर्गों को पार करने के लिए तुम चित्त को मुझ में लगा दो। मेरे प्रसाद से तुम तर जाओगे।
हम ऊपर के भेदों को छोड़कर जो. सत्य है, उसकी यात्रा करें। उससे जैसी अनुभूति होती है, वैसी अनुभूति इन शब्दों के भेदों से कभी नहीं हो सकती।
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