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भेद में छिपा अभेद
के स्तर पर पहुंचा, उस भूमिका से उसने जो कहा, वह देशातीत और कालातीत बन गया। अनुभव के स्तर पर कही गई बात, चाहे वह किसी भी समय में, किसी भी आदमी ने कही हो, समान ही होगी। जब हम कभी अनेक विचारकों को पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है कि क्या किसी ने किसी की बात को लिया है। महावीर, सकरात, ताओ, कन्फ्यूशियस - सबके विचार, सबका चिन्तन एक जैसा है। क्या किसी ने किसी से लिया है? पर ऐसा नहीं है। वे सब विचार अनुभव के धरातल पर जन्मे हुए विचार हैं। जहां अनुभूति का प्रश्न है वहां कोई अंतर नहीं होता। अंतर होता है बौद्धिकता में। भेद करने वाली है बुद्धि। जहां एकत्व और अद्वैत है वहां बुद्धि के व्यवसाय की जरूरत ही नहीं है। भेद का प्रश्न ही नहीं है। तात्पर्य को पकड़ें
हम आचारांग और गीता को इस भूमिका पर पढ़ें, अनुभव के स्तर पर पढ़ें। ऐसा लगेगा - दोनों में भाषा का अंतर हो सकता है, शैली का अंतर हो सकता है किन्तु जो तात्पर्यार्थ है, उसमें कोई अंतर नहीं है। हम शब्दों को पकड़ते हैं, तात्पर्य को नहीं पकड़ते। केवल शब्दों के आधार पर आचारांग और गीता को पढ़ेंगे तो ऐसा लगेगा - आचारांग जा रहा है पूरब दिशा में और गीता जा रही है पश्चिम दिशा में। जब हम तात्पर्य में जाते हैं तो ऐसा लगता है - गोल दुनियां में सब मिल जाते हैं, आचारांग और गीता में कोई अंतर दिखाई नहीं देता। संदर्भ : श्रद्धा
महावीर ने कहा – 'सड्डी आणाए मेहावी' - जो मेधावी है, वह आज्ञा में श्रद्धावान् होता है। वह ज्ञान के प्रति श्रद्धालु होता है, अपनी सारी सत्ता का नियोजन ज्ञान में कर देता है। आज्ञा का मतलब है अनभव का ज्ञान। जो अतीन्द्रिय ज्ञान में श्रद्धाल होता है, वह आज्ञा में श्रद्धा करता है। जहां बौद्धिक ज्ञान का प्रश्न है वहां श्रद्धा और समर्पण नहीं हो सकता, संदेह या दुराव होगा। .. गीता में श्री कृष्ण कहते हैं :
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