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उत्तराध्ययन और महाभारत
गया है
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शास्त्रं यदि भवेदेकं श्रेयो व्यक्तं भवेत्तदा । शास्त्रैश्च बहुभिर्भूयः श्रेयो गुह्यं प्रवेशितम् ।। अर्थ और काम की भूमिका पर
चिन्तन की धारा में कितनी समानता है लेकिन यह अलग भूमिका की बात है। हम इस भूमिका भेद को स्पष्ट जानें। जहां जहां महाभारत में अध्यात्म का चिन्तन है वहां वहां उत्तराध्ययन और महाभारत को एक तराजू में रखा जा सकता है। एक तराजू के दो पल्ले हैं। एक पल्ले में महाभारत को रखें और दूसरे में उत्तराध्ययन को। दोनों सम रहेंगे। न कोई ऊँचा होगा और न कोई नीचा । अध्यात्म की भूमिका में कोई अंतर हो ही नहीं सकता। जहां अर्थ और काम का प्रश्न है वहां उत्तराध्ययन और महाभारत का चिन्तन दो विपरीत दिशाओं की भांति कहीं नहीं मिलता। अर्थ के संदर्भ में महाभारत कहता है अर्थ के बिना आदमी को पूछता कौन है ? निर्धन आदमी बड़ा निर्बल होता है। सबसे पहले धन का अर्जन करो । धन ही सब कुछ है। महाभारत में धन को बहुत मूल्य दिया गया है। काम और दंडनीति का भी प्रबल समर्थन किया है। उत्तराध्ययन में इन सबको कोई स्थान नहीं है। उत्तराध्ययन और महाभारत की तुलना से यह बात बहुत स्पष्ट हो जाती है कि जहां महाभारत पुरुषार्थ चतुष्टयी का वर्णन करने वाला ग्रंथ है वहां उत्तराध्ययन केवल दो पुरुषार्थों धर्म और मोक्ष का प्रतिपादक ग्रंथ है।
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विमर्शनीय प्रश्न
एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न सामने आता है जैन धर्म परिपूर्ण धर्म नहीं है और इसलिए नहीं है कि उसने काम और अर्थ के बारे में अपनी नीति स्पष्ट नहीं की । एक साधु के लिए जैन धर्म परिपूर्ण धर्म है लेकिन एक गृहस्थ के लिए वह परिपूर्ण धर्म नहीं है। क्योंकि उसमें समाज का चिन्तन नहीं है । यह प्रश्न बहुत बार आता है। साहू शांतिप्रसादजी जैन ने अनेक बार कहा महाराज ! जब भी आप प्रवचन सुनाते हैं तब बार-बार यह कहते हैं - साधु ऐसा नहीं करता,
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