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भेद में छिपा अभेद
दण्ड है। उत्तराध्ययन का स्वर है पत्थर फेंकने वाला व्यक्ति पहले अपने आपको देखे। यह अध्यात्म का स्वर है । अध्यात्म की भूमिका पर खड़ा होकर व्यक्ति वही बोलेगा, जो उत्तराध्ययन बोल रहा है। समाज की भूमिका पर, दंडनीति और राजनीति की भूमिका पर खड़ा होकर व्यक्ति जो बात कहेगा, वह महाभारत में मिल सकती है, उत्तराध्ययन में नहीं । भूमिका भेद
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हम इस भूमिका भेद को समझें। जहां चार पुरुषार्थों की मान्यता है वहां दंड का समर्थन भी मिलेगा, हिंसा का समर्थन भी मिलेगा, काम और अर्थ का समर्थन भी मिलेगा, अहिंसा और सत्य का समर्थन भी मिलेगा। महाभारत में अहिंसा का बहुत सूक्ष्मता से निरूपण किया गया है। कहा गया खेती करना भी हिंसा है। यह बात जैन आगमों में मिलेगी या महाभारत में । महाभारत में पूरा एक प्रकरण है, जिसमें यह बताया गया है कि खेती किस प्रकार से हिंसा है। ऐसा लगता है वह प्रकरण जैन विचारों के आधार पर लिखा गया है। अन्यथा इतनी सूक्ष्मता उसमें नहीं आती।
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अध्यात्म की भूमिका पर
उत्तराध्ययन और महाभारत की प्रकृति को समझना आवश्यक है। हम अध्यात्म की भूमिका को पढ़ें। उत्तराध्ययन में महावीर गौतम को संबोधित करते हुए कहते हैं गौतम! तुम याद करोगे, आने वाली पीढ़ियां याद करेंगी आज तीर्थंकर नहीं हैं। धर्म के मार्गदर्शक बहुत हैं । हम किसकी बात को स्वीकार करें और किसकी बात को अस्वीकार करें। यह एक बड़ा प्रश्न होगा। यही स्वर महाभारत में है - यदि एक शास्त्र होता तो श्रेय प्रकट हो जाता किन्तु आज शास्त्र एक नहीं है। कितने शास्त्र बन गए हैं। श्रेय को गुफा में डाल दिया गया है। उसका पता ही नहीं चल पा रहा है। तर्क भी प्रतिष्ठित नहीं है। धर्म का सारा तत्त्व उसमें छुप गया है। महाभारत में युधिष्ठिर के सामने ये सारी बातें आ रही हैं और उसका एक पूरा प्रकरण है। यह कथन कितना महत्त्वपूर्ण है. शास्त्र एक नहीं है, बहुत हैं, इसलिए श्रेय तत्त्व छिप
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