________________
उत्तराध्ययन और धम्मपद
परिवर्तनवाद या परिणामवाद। कूटस्थनित्यवादी कहते हैं-जो जैसा है, वह वैसा ही रहता है। कभी कुछ बदलता ही नहीं है। आत्मा अचल है, नित्य है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं आता। क्षणिकवादी, जो परिवर्तन को ही मान्य करते हैं, उनका कहना है-आत्मा शाश्वत नहीं है। वह प्रतिक्षण बदलती रहती है। दिए की लौ जल रही है। पूछा जाए-पहले क्षण में जो लौ जल रही थी, क्या वही लौ दसरे क्षण में जल रही है? क्षणिकवादी का उत्तर होगा-वह लौ नहीं है, जो जल रही थी, वह चली गई। अब जो जल रही है, वह नई लौ है। दीप जलता रहेगा, लौ जलती रहेगी, लेकिन कोई भी लौ एक नहीं होगी। वह प्रतिक्षण नई होगी। बुद्ध कहते हैं-जैसे दिए की लौ प्रतिक्षण बदलती रहती है वैसे ही आत्मा भी प्रतिक्षण बदलती रहती है। त्रिपदी का सिद्धान्त
महान् दार्शनिक हेरेक्लाइटस ने कहा - नदी के एक पानी पर दो बार पैर नहीं रखा जा सकता। जिस पानी पर अभी पैर रखा है, उसी पानी पर दुबारा पैर नहीं रखा जा सकता, क्योंकि पहले वाला पानी बह चुका होता है और अब का पानी नया है। एक है प्रवाह की धारा और एक है स्थिर धारा। प्रवाह की धारा वह है, जो टिकाऊ नहीं है, स्थिर नहीं है। महावीर ने जो स्थाई है, उसको भी स्वीकार नहीं किया, जो अस्थाई है, उसको भी स्वीकार नहीं किया। महावीर ने स्वीकृति दी उत्पाद, व्यय और धौव्य-इस त्रिपदी को। उन्होंने कहा-जो उत्पाद, व्यय और धौव्यात्मक है, वही द्रव्य है। कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है, जिसमें धौव्य है, किन्तु उत्पाद और व्यय नहीं है। कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है, जिसमें उत्पाद और व्यय है, किंत धौव्य नहीं है। जो इस त्रिपदी को नहीं जानता, वह जैन धर्म के मर्म को नहीं जानता। धौव्य है तो साथ में उत्पाद और विनाश भी है। परिवर्तन के बीच एक ऐसा तत्व है, जो सदा स्थिर रहता है। यही है धौव्य।
हम लाडनूं शहर का संदर्भ लें। लाडनूं कब से है? कितना प्राचीन है? यदि प्राचीन जैन मंदिर और सरस्वती की प्रतिमा को देखें तो लाडनूं हजार वर्ष से भी अधिक पुराना है। क्या आज लाडनूं वही है, जो हजार वर्ष पहले
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org