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उत्तराध्ययन और धम्मपद
कवि कहता है-जो नीच व्यक्ति होता है, वह थोड़े में ही अहंकार से भर जाता है। सीमा से परे __ जिसने दुनिया को नहीं देखा है, उसे अपना घर ही सबसे बड़ा लगता है। यह कूपमण्डूकता की बात सारे संसार में चलती है। धर्म का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है। बहुत सारे लोग ऐसे हैं, जो कुएं से बाहर कभी जाते ही नहीं हैं। वे यह नहीं मानते -हमारे से बड़ा भी कोई हो सकता है, किन्तु कुछ आध्यात्मिक व्यक्ति ऐसे हुए हैं जिन्होंने सचाई को आकाश की भांति अनन्त रूप में स्वीकार किया है। 'विशाल ज्ञानराशि को किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता'-यह सचाई जिस व्यक्ति के सामने स्पष्ट होती है, वह सीमा से परे की बात भी सोचता है। दो परम्पराएं : दो ग्रंथ
हम इस सचाई के संदर्भ में दो परंपराओं का विश्लेषण करें। एक है बुद्ध की परम्परा, दूसरी है महावीर की परंपरा। बुद्ध की परंपरा का एक प्रतिनिधि ग्रन्थ है-धम्मपद और महावीर की परंपरा का एक प्रतिनिधि ग्रन्थ है-उत्तराध्ययन। हम इन दोनों ग्रन्थों को पढ़ें तो ऐसा लगेगा-उत्तराध्ययन के रचयिता ने धम्मपद से लिया है या धम्मपद के रचयिता ने उत्तराध्ययन से लिया है। दोनों ग्रन्थों को देखने पर बड़ी असमंजस की स्थिति सामने आती है। दोनों ग्रन्थों में तुलनात्मक अध्ययन की सामग्री भरी पड़ी है।
आचार्यश्री ने संवत् २०२० का चातुर्मास लाडनूं में किया। उस समय 'उत्तराध्ययनः एक समीक्षात्मक अध्ययन'-ग्रन्थ लिखा जा रहा था। लेखन के संदर्भ में एक प्रस्ताव आया-उत्तराध्ययन, धम्मपद और महाभारत-तीनों का तुलनात्मक अध्ययन एक निबंध में प्रस्तुत किया जाए किन्तु जब तीनों ग्रन्थों का पारायण किया गया तो धारणा बदल गई। हम लिखना चाहते थे एक अध्याय और लिखा जा सकता था एक बृहद् ग्रन्थ। इतनी समान बातें, समान पद, समान वाक्य और समान अर्थ। तुलना करें तो एक पूरा ग्रन्थ ही बन जाए।
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