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धर्म और राजनीति
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उस समय
हृदय परिवर्तन काम कर सकता है। आदिम युग में एक समय ऐसा था, जब राज्य और राजनीति नहीं थी, किन्तु सब लोग स्वतः अनुशासित थे। उस समय न कोई छीना-झपटी होती थी, न अपराध और चोरियां होती थीं। इसका कारण यह थाआवश्यकताएं अल्प थीं और पदार्थ अनंत। इस स्थिति में हृदय परिवर्तन के द्वारा समाज की व्यवस्था चल सकती है। जहां आवश्यकताएं बढ़ जाएं, आवश्यकता के स्रोत कम हो जाएं, पदार्थ की खपत ज्यादा हो जाए, उपभोक्ता बढ़ जाएं, वहां हृदय परिवर्तन द्वारा समाज को शासित किया जा सके, यह संभव नहीं लगता। जहां चोरी, छीना-झपटी आदि समस्याएं उभरती रहती हैं, वहां कानून और व्यवस्था की अनिवार्यता को नकारा नहीं जा सकता। इस स्थिति में राजनीति और राज्य व्यवस्था का विकल्प ही समाधान बनता है। राजनीति : लक्ष्य की रेखाएं
राज्य की स्थापना के साथ यह लक्ष्य जुड़ा रहता है - समाज में सुख एवं शांति रहे । समाज को सुख मिले, सुविधा के साधन उपलब्ध हों। समाज में अपराध न हो, कलह और छीना-झपटी न हो। बड़े लोग छोटों पर अन्याय न करें। राजनीति के सामने लक्ष्य की ये रेखाएं रहती : हैं और इन रेखाओं के आधार पर राजनीति के द्वारा राज्य की स्थापना होती है। इन लक्ष्यों के अनुरूप समाज निर्माण के प्रयत्न चलते हैं। यह स्पष्ट है - जहां राजनीति है वहां व्यक्ति का प्रश्न नहीं हो सकता, हृदय - - परिवर्तन का प्रश्न नहीं हो सकता । राजनीति के सामने दूर तक जाने वाली नैतिकता का प्रश्न भी नहीं होता । राजनीति के साथ: नैतिकता का प्रश्न उपयोगिता से जुड़ा हुआ है। उपयोगितापरक नैतिकता राजनीति के क्षेत्र में अवश्य उपलब्ध हो सकती है। यदि हम वर्तमान राजनीति के साथ विशुद्ध नैतिकता का प्रश्न जोड़ना चाहें तो शायद वह संभव नहीं है।
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राजनीति और नैतिकता
कुछ पाश्चात्य चिन्तकों ने राजनीति का नैतिकता के साथ विचार किया है। कुछ भारतीय चिन्तकों ने राजनीति का धर्म के साथ संबंध
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