________________
भेद में छिपा अभेद
जोड़ने का प्रयत्न भी किया है। एक ओर राजनीति है तो दूसरी ओर धर्म एवं नैतिकता है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विचार करें तो यह मानने में कोई कठिनाई नहीं होगी कि राजनीति का नैतिकता और धर्म के साथ सापेक्ष संबंध ही माना जा सकता है। उनमें कोई अनिवार्य संबंध स्थापित नहीं किया जा सकता। जहां राजनीति है वहां धर्म की अनिवार्यता है, नैतिकता की अनिवार्यता है, ऐसा नहीं माना जा सकता और ऐसा हो भी नहीं सकता। इनमें सापेक्ष संबंध ही हो सकता है। धर्म के सामने समाज जैसा कोई शब्द ही नहीं है। उसके सामने प्रश्न है व्यक्ति का । वास्तव में व्यक्तिवाद धर्म की एक महत्त्वपूर्ण देन है। आज राजनीति के क्षेत्र में भी व्यक्ति स्वातंत्र्य का मूल्य बढ़ा है पर मूलतः यह कोई राजनीति का प्रश्न नहीं है। यह धर्म का प्रभाव है। जहां व्यक्ति - स्वातंत्र्य नहीं होगा वहां राज्य कैसे अच्छा चलेगा? जो राज्य व्यक्ति की स्वतंत्रता का उपहरण करे, वह अच्छा हो नहीं सकता। जब से लोकतंत्र चला है, लोकतंत्र की राजनीति रही है, तव से उसमें जाने-अनजाने धर्म के कुछ सिद्धान्त स्वीकार कर लिए गए हैं।
स्वतंत्रता का प्रश्न
व्यक्ति की स्वतंत्रता, वाणी की स्वतंत्रता, लेखन की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता - ये सारे सिद्धान्त धर्म के प्रभाव से स्वीकृत हुए हैं। स्वतंत्रता का प्रश्न बहुत महत्त्वपूर्ण है। स्वतंत्रता देना राजनीति का कार्य नहीं है। राजनीति का कार्य है स्वतंत्रता को सीमित करना। समाज की व्यवस्था के लिए स्वतंत्रता को सीमित करना अनिवार्य बन जाता है। यह राजनीति की भाषा नहीं है - व्यक्ति की जो इच्छा हो, वह करे और जो इच्छा नहीं है, उसे न करे। व्यक्ति की इच्छा या अनिच्छा का प्रश्न राजनीति में मुख्य नहीं है। धर्म के क्षेत्र में कहा जाता है - व्यक्ति की इच्छा हो तो त्याग या व्रत ले। उसकी इच्छा न हो तो त्याग की बात को अस्वीकार कर दे। यह इच्छा का स्वातंत्र्य धर्म की भाषा में स्पष्ट है लेकिन राजनीति की भाषा में इसका कोई मूल्य नहीं है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org