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भेद में छिपा अभेद
सचाई भी मान लेना चाहिए। यदि हम ऐसे युग का निर्माण कर सकें, ऐसे वातावरण का निर्माण कर सकें, जिसमें समाज इतना अनुशासित हो जाए कि दंड-शक्ति की अपेक्षा समाप्त हो जाए। इस स्थिति में ही हृदय-परिवर्तन के द्वारा समाज अनुशासित हो सकता है। समस्या : कारण
समस्या यह है – भिन्न भिन्न विचार के लोग हैं, भिन्न-भिन्न प्रकार के मस्तिष्क हैं। मानव-मस्तिष्क का विश्लेषण करें तो मस्तिष्क की अनेक श्रेणियां प्रस्तत हो जाती हैं। मस्तिष्क को संक्षेप में पांच श्रेणियों में बांटा जा सकता है१. अति-विकसित। २. विकसित। ३. अल्प-विकसित। ४. अर्द्ध-विकसित। ५. अ-विकसित।
ऐसे लाखों आदमी हैं, जिनका मस्तिष्क सर्वथा अविकसित है। उनके लिए कोई शब्द काम नहीं करता, धर्म का उपदेश काम नहीं करता। वे कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं होते। जो सुनते हैं, उसे समझ नहीं पाते। लाखों लोग अर्द्ध-विकसित दिमाग वाले हैं। अल्प-विकसित
और विकसित दिमाग वालों की संख्या भी कम नहीं है। बहत कम लोग ऐसे हैं, जिनका मस्तिष्क अति-विकसित है। अपनी मस्तिष्कीय क्षमताओं का अधिकतम उपयोग करने वाले व्यक्तियों की संख्या नगण्य ही है। कानून और व्यवस्था की अनिवार्यता
जिस समाज में जीने वाले व्यक्ति विभिन्न श्रेणियों में बंटे हुए हैं, उस समाज को हृदय-परिवर्तन या धर्म के द्वारा संचालित करने की कल्पना भी एक अतिकल्पना जैसी लगती है। प्रश्न है-धर्म के द्वारा समाज कब संचालित होता है? जहां अल्प क्रोध, अल्प मान, अल्प माया और अल्प लोभ हो, इस प्रकार अल्प कषाय की मानसिकता का निर्माण हो, वहां धर्म द्वारा समाज संचालित हो सकता है,
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