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मूल्य का अपकर्ष
आज सामान्य आदमी की सोच एवं अवधारणा में राजनीति और धर्म – दोनों के मूल्य का अपकर्ष हुआ है। धर्म और राजनीति - दोनों समाज के लिए अत्यंत अनिवार्य है । राजनीति के बिना समाज या राज्य की व्यवस्था नहीं चल सकती और धर्म के बिना किसी भी व्यक्ति की सुखद व्यवस्था नहीं हो सकती। बहुत कम लोग ऐसे हुए हैं, जिन्होंने राजनीति पर स्वतंत्र रूप से चिन्तन-मंथन किया है। पाश्चात्य देशों में राजनीति पर बहुत चिन्तन किया गया ।
धर्म और राजनीति
प्रश्न है - राजनीति का लक्ष्य क्या है? प्राचीन यूनानी दार्शनिकों ने कहा- राजनीति का लक्ष्य है नैतिक समाज की स्थापना । किन्तु इन तीन - चार शताब्दियों में राजनीतिज्ञों ने इस अवधारणा को पूरा स्थान नहीं दिया। उनकी अवधारणा में राजनीति का लक्ष्य रहा - समाज में सुख बढ़े, दुःख दूर हो। भारतीय संविधान में कहा गया- प्रत्येक नागरिक को सुख एवं शांति की गारन्टी दी जाए। यदि हम धर्म और राजनीति पर स्वतंत्र दृष्टि से विचार करें तो इन दोनों के संदर्भ में स्पष्ट दृष्टिकोण प्रस्तुत होगा।
धर्म और राजनीति का कार्य
राजनीति का काम है - समाज की रचना या राज्य की स्थापना । धर्म का काम है व्यक्ति का निर्माण | धर्म कभी समाज की रचना नहीं कर सकता। हालांकि स्मृतिकारों ने समाज की स्थापना का प्रयास किया है किन्तु उनका धर्म मोक्ष-धर्म से जुड़ा हुआ नहीं है। स्मृतिकारों ने कहा- राज्य की स्थापना तभी संभव है, जब उसके साथ दण्डनीति भी हो। जहां दंड की व्यवस्था नहीं होती, वहां समाज की स्थापना नहीं हो सकती। यह अतीत का सत्य रहा है और इसे वर्तमान यग की
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