SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रेक्षाध्यान और भावातीत ध्यान १२१ रहें। यह अवस्था बढ़ती चली जाए, जप भावातीत हो जाएगा। एक समय ऐसी स्थिति आती है-'शब्द छट जाता है और केवल अर्थ रह जाता है। यही है भावातीत ध्यान। इस अवस्था को समाधि भी कहा जाता है। पहले शब्द और विचार का आलंबन लिया जाता है, वह निर्विचार में बदल जाता है, शब्द और विचार छूट जाते हैं, केवल तन्मात्र रह जाता है, अर्थ की अनुभूति रह जाती है। हम प्रेक्षाध्यान में अहँ का जप करवाते हैं। जप करते-करते 'अहं' शब्द छूट जाता है, 'अहं' का अर्थमात्र रह जाता है, व्यक्ति समाधि में चला जाता है। यही भावातीत ध्यान है, हमारी भावातीत चेतना है। जप का महत्त्व प्रेक्षाध्यान में जप सम्मत है, अस्वीकृत नहीं है। एकाग्रता के लिए जप का प्रयोग बहत जरूरी होता है। जप और भावना-दो नहीं हैं। इसे तन्मयध्यान भी कहा जा सकता है-साध्यमय हो जाना, साधक और साध्य का भेद न रहना। यह गण-संक्रमण का सिद्धान्त है-ध्येय को अपने आप में संक्रान्त कर देना। अगर हम गरुड़ का ध्यान करें तो स्वयं में गरुड़ की अनुभति करें। जिसका ध्यान करें, अपने आपमें उस स्थिति का अनुभव करना, तन्मय ध्यान, तदरूप ध्यान, समापत्ति या भावना है। ये भावना के प्रयोग हैं। 'तद् जप: तदर्थभावनम'। अहँ का जप करते समय अहमय हो जाना, यह भावना है और यही जप है। इसमें वह क्षण भी आ सकता है कि अपरिमित आनन्द आने लग जाए, शक्ति अपरिमित जाग जाए और हमारा परिणमन वैसा होने लग जाए। 'शब्द की शक्ति प्रेक्षाध्यान में जप का यह प्रयोग भी कराया जाता है। शब्द और अशब्द- ये दोनों पद्धतियां जिस ध्यान में नहीं होतीं, हमारी दृष्टि में ध्यान की वह पद्धति पूर्ण नहीं है। शब्द हमारा बहुत विकास करने वाला है। शब्द के अभाव में विकास रुक जायेगा। शब्द या सरता एक ही बात है। कबीर ने सुरता का बहुत प्रयोग किया है। मन्त्र निर्माता जानता है कि किन शब्दों का गठन होना चाहिए? मन्त्र में शब्द का अर्थ गौण होता है, केवल शब्द की शक्ति होती है। गठन का आधार रहता है, प्रकंपन। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003085
Book TitleBhed me Chipa Abhed
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages162
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy